Salik Ganvir   (© सालिक गणवीर)
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Joined 9 November 2018


Joined 9 November 2018
26 APR AT 8:23

एक हीरा नहीं खदान में क्या
कोयला ही बचा है खान में क्या (१)

कोई सुनता नहीं यहाँ मेरी
सारे बहरे हैं इस जहान में क्या (२)

ख़ाली ख़ाली-सी दिख रही है ज़मीं
बस गए लोग आसमान में क्या (३)

सुन रहा है तू ग़ौर से उसको
कोई कहता है तेरी शान में क्या (४)

सारे मक्खन लगाते हैं तुझको
सिर्फ़ चमचे हैं ख़ानदान में क्या (५)

रात को हम भी टिमटिमाते हैं
एक तुम ही हो आसमान में क्या (६)

तिफ़्ल को बाप ढूँढने निकला
फ़ेल है फिर वो इम्तिहान में क्या (७)

इतना उछलो नहीं मियाँ "सालिक"
कोई बछिया मिली है दान में क्या (८)

© सालिक गणवीर

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16 APR AT 7:39

दूर रह-रह के किसी रोज़ न मर जाएँ कहीं
पास आने भी दो हद से न गुज़र जाएँ कहीं (१)

रोक सकता है हमें रोक ले वर्ना ऐ दोस्त
जो न करना था वही काम न कर जाएँ कहीं (२)

बेख़याली में कभी ऐसा भी हो जाता है
उसको देखूँ मैं कहीं और नज़र जाएँ कहीं (३)

जब भी मिलना हो सनम सज के-सँवर के मिलना
तुझको मेक-अप बिना देखें तो न डर जाएँ कहीं (४)

एक अर्सा हुआ जी-भर के न देखा उसको
देखते ही उसे अब आँखें न भर जाएँ कहीं (५)

कब तलक यार सँभालें या समेटें उनको
जोड़ने में उन्हें हम ही न बिखर जाएँ कहीं (६)

इतना बिगड़ा हुआ देखा है उसे अब 'सालिक'
हमको डर लगता है हम ही न सुधर जाएँ कहीं (७)

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7 APR AT 11:00

मूँग छाँव वालों की छातियों पे दलते हैं
ज़िस्म मोम का लेकर धूप में निकलते हैं (१)

हमसफर मिले ऐसे, ज़िन्दगी की राहों में
जब भी मोड़ आता है, रास्ते बदलते हैं (२)

वक़्त से बहुत पहले, हो गए बड़े बच्चे
देखकर गुबारे भी,अब नहीं मचलते हैं (३)

चैन लूटकर मेरा वो भी सो नहीं सकते
इसलिए तो रातों में करवटें बदलते हैं (४)

आग इनके अंदर की बुझ कभी नहीं सकती
पानियों में रहकर जो लोग हमसे जलते हैं (५)

जागते कभी उनको हो न पाया पछतावा
नींद जब भी आती है, हाथ ही वो मलते हैं (६)

ख़द्द-ओ-ख़ाल* तो जिनका अब बदल नहीं सकता
आजकल वही चहरे आइने बदलते हैं (७)

घर के सामने जिनके भीड़ थी कभी 'सालिक'
अब अकेले छत पे वो,शाम को टहलते हैं (८)

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30 MAR AT 7:31

वक़्त के बदलने में देर कितनी लगती है
ग़म की रात ढलने में देर कितनी लगती है (1)

साथ-साथ चलना है उम्र भर यूँ ही उनके
आगे भी निकलने में देर कितनी लगती है (2)

ये भी इक हक़ीक़त है सर्दियों के मौसम में
हड्डियाँ पिघलने में देर कितनी लगती है (3)

नब्ज वक़्त की यारो थाम कर रखो वरना
हाथ से निकलने में देर कितनी लगती है (4)

बर्फ़ की तिजोरी में उनके खत रखो वरना
काग़ज़ों को जलने में देर कितनी लगती है (5)

इत्तिफ़ाक़ से हम हैं उनके पाँव के नीचे
गिर गए सँभलने में देर कितनी लगती है (6)

की नहीं दग़ा-बाज़ी हमने दोस्तो लेकिन
पार्टी बदलने में देर कितनी लगती है (7)

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22 MAR AT 17:19

मौत के शिकंजे से बच के भी कहाँ जाए
आप ही बता दीजे ज़िंदगी कहाँ जाए (१)

रूठ कर कछारों से मनचली कहाँ जाए
पर्वतों ने मुँह मोड़ा तो नदी कहाँ जाए (२)

मार-काट हावी है हर तरफ मची है लूट
शहर-ए-अजनबी में अब आदमी कहाँ जाए (३)

लाल बत्तियों वाली गाड़ियों की आदत थी
साहिबों के बिन तन्हा अर्दली कहाँ जाए (४)

अब उसे ही बाहर जा कह दिया है बेटों ने
घर उसी का है लेकिन अब वही कहाँ जाए (५)

तंगहाली में भी ये बस्तियाँ मेरी ख़ुश थीं
हो रही सड़क चौड़ी तब गली कहाँ जाए (६)

ढूँढने से बरसातों में नहीं मिला कोई
छोड़ कर मुझे प्यासा तिश्नगी कहाँ जाए (७)

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20 MAR AT 20:35

मैं कहाँ हूँ मुझे पता ही नहीं
ख़ुद से मुद्दत हुई मिला ही नहीं (१)

किसको भेजूँ मैं यार लोकेशन
अब मुझे कोई ढूँढता ही नहीं (२)

जिस्म पर हैं कई फफोले पर
सबसे कहता है वो जला ही नहीं(३)

कितनी लाशें पड़ीं हैं सड़कों पर
हादिसा तो यहाँ हुआ ही नहीं (४)

सर कलम मेरा इस ख़ता पे हुआ
उसके तलवे मैं चाटता ही नहीं (५)

सच के रस्ते सभी को चलना है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं (६)

इसलिए दर-ब-दर हूँ मैं "सालिक"
घर मेरे वास्ते बना ही नहीं (७)

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15 MAR AT 8:56

२१२२-११२२-२२/११२

काम आती कोई तदबीर नहीं
सुख मिले ये मेरी तक़दीर नहीं (१)

किससे कह दूँ कि रिहा कर दे मुझे
"जब मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं" (२)

अब शिकारी ही न हो जाए शिकार
है धनुष पास मगर तीर नहीं (३)

एक बस्ती ही तो जीती उसने
यार वो कोई जहाँगीर नहीं (४)

पार हो जाए मिरे सीने से
ऐसा दुनिया में कोई तीर नहीं (५)

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8 MAR AT 21:28

2122-1122-1122-22/112

यूँ ही इक दिन कभी मैंदान में डालें ख़ुद को
और फुटबॉल की मानंद उछालें ख़ुद को (१)

घर से बाहर कभी हम निकलें तो सैयाद का डर
इसलिए कहता हूँ पिंजरे में ही पालें ख़ुद को (२)

एक ही रस्सी प चलना है ज़मीं से ऊपर
तुझको थामें या बता यार सँभालें ख़ुद को (३)

इक न इक सिक्का ख़ुशी का भी कभी निकलेगा
अपने खीसे की तरह अब तो खँगालें ख़ुद को (४)

तब ही सुन पाएँगे सन्नाटे भी क्या कहते हैं
जी में आता है बयाबाँ में छुपा लें ख़ुद को (५)

अंधे लोगों को तभी राह दिखा पाएँगे
सबसे पहले तो उजालों से निकालें ख़ुद को (६)

जिस्म नंगा है शब-ए-सर्द में अब तू ही बता
ख़ुद को ओढ़े कभी 'सालिक' या बिछा लें ख़ुद को (७)

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4 MAR AT 23:01

बेसहारों का सहारा होना
कौन चाहेगा हमारा होना (१)

तेरा हो जाने से ये बिहतर है
बेसहारों का सहारा होना (२)

इसलिए पी नहीं पाया आँसू
इनका अच्छा नहीं खारा होना (३)

पहले मेरा न हुआ वो लेकिन
उसका चाहूँगा दोबारा होना (४)

दूर होकर यूँ तेरी नज़रों से
मैं न चाहूँगा सितारा होना (५)

मुझको दिखते हैं बुझे-से वो लोग
जिनको आता था शरारा होना (६)

ये मुक़द्दर को भी मंजूर नहीं
आपके साथ गवारा होना (७)

तंग-हालों को बहुत चुभता है
आपके पास ही सारा होना (८)

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19 FEB AT 22:32

मैं जहाँ हूँ उधर नहीं आती
रौशनी क्यों नज़र नहीं आती (१)

सुब्ह जाती तो है ख़ुशी घर से
शाम को लौट कर नहीं आती (२)

दूर इतने चल गए हैं लोग
अब वहाँ से ख़बर नहीं आती (३)

सुब्ह के बाद शाम आती है
पर कभी दोपहर नहीं आती (४)

दफ़्न हो जाएँ ख़्वाब आँखों में
नींद क्यों इस क़दर नहीं आती (५)

दिन में जाती है आजकल बिजली
और फिर रात भर नहीं आती (६)

गर्मियों में ही धूप आती है
सर्दियों में इधर नहीं आती (७)

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