मूँग छाँव वालों की छातियों पे दलते हैं
ज़िस्म मोम का लेकर धूप में निकलते हैं (१)
हमसफर मिले ऐसे, ज़िन्दगी की राहों में
जब भी मोड़ आता है, रास्ते बदलते हैं (२)
वक़्त से बहुत पहले, हो गए बड़े बच्चे
देखकर गुबारे भी,अब नहीं मचलते हैं (३)
चैन लूटकर मेरा वो भी सो नहीं सकते
इसलिए तो रातों में करवटें बदलते हैं (४)
आग इनके अंदर की बुझ कभी नहीं सकती
पानियों में रहकर जो लोग हमसे जलते हैं (५)
जागते कभी उनको हो न पाया पछतावा
नींद जब भी आती है, हाथ ही वो मलते हैं (६)
ख़द्द-ओ-ख़ाल* तो जिनका अब बदल नहीं सकता
आजकल वही चहरे आइने बदलते हैं (७)
घर के सामने जिनके भीड़ थी कभी 'सालिक'
अब अकेले छत पे वो,शाम को टहलते हैं (८)
-