हाथों में गुलाब है, उसके भी और मेरे भी,, कुछ कदम मैं उसकी तरफ़, कुछ वो मेरी तरफ़ चल रही है! यूँ मेरे और इन ग़मों के करीब आने की ये दास्ताँ भी मुसलसल रही है!!
ख़ुद से ही रूठते हैं, ख़ुद ही मुँह फ़ुला लिया करते हैं ख़ुद से ख़ुद को, ख़ुद के काँधे पर सुला लिया करते हैं अकेले नहीं हैं हम, ग़मों की महफ़िल मुक़द्दर है हमें,, ग़म दूर भी खड़ी हो, तो हम ख़ुद बुला लिया करते हैं
इक सवाल है मन में, जवाब उसका मिल नहीं रहा है,, या वो जवाब मैं सुनना नहीं चाहता!! सुन भी लिया गर, तो क्या ही फ़र्क़,, ग़म की चादर मैं बुनना नहीं चाहता!!
ख़ैर, इस दिल ने इसी दिल से पूछा है जो सवाल,, बता ही देता हूँ कि इसने किया है मेरा बुरा हाल!! सवाल यूँ कि "सबसे ज़्यादा नफ़रत" तू किसे करता है?? जो इतने नाम हैं दिल में, उन्हें? या फिर मुझे करता है?? गर वो ख़ुद मैं ही हूँ, तो ये इतने सारे नाम क्यूँ? बेवजह ही इस दिल को बहलाने का काम क्यूँ!!
आख़िर क्यूँ है ख़ुद को ख़ुद से इतनी नफ़रत, क्या ज़िन्दगी में कोई गुनाह किये बैठा हूँ? या फिर इल्ज़ामों की पनाह लिये बैठा हूँ!! हाथों में गलतियाँ, दिल में उनका एहसास है!! शायद से अब, सिर्फ मुझे ही मुझ पर नाज़ है!!
फिर भी नफ़रत ख़ुद से, यूँ ही बरकरार है!! ये दिल तो अब, उल्फ़तों का तलबगार है!! खुद ही खुद से नफ़रत की सज़ा क्या है? वैसे ये बताओ, कि मेरी ख़ता क्या है?? जब भी-जो भी चाहा, खोया हर कदम!! ऐ ख़ुदा! अब तो दिखा दे थोड़ी-सी रहम!!