मैं समझ नही पाया इंसान को
1.ये भूल जाता हैं प्रभु के अहसान को,
जो ना आजीवन अपनो का हो सका,
ओर ना सम्भाल सका अपने ईमान को,
मैं समझ नही पाया इंसान.
2.शर्म तो कब की बेच खाई उसने,
घूंघट से बाहर ना झांका था जिसने,
जो भूल बैठी बड़ों के सम्मान को,
मैं समझ नही पाया इंसान को,
3.दवा को जिसने दारू बना डाला,
इंजेक्शन हाथों में कहा गई राम की माला,
जिसने छोड़ घर चुना खुद ही शमशान को,
मैं समझ नही पाया इंसान को
4.अपनो से प्रेम और द्वेष भी अपनो से,
हिम्मत की कमी और फिर सन्धि सपनो से,
कबसे ज्ञान बांट रहा
मुसाफिर विद्वान को,
मैं समझ नही पाया इंसान को
5.ये मेरी लेखनी ये अनमोल शब्द है,
क्यों बोल रहा है सच रजत
ये सोच सब स्तब्द है,
गलत कुछ कहा तो बोलो
क्यों सब लोग निशब्द हैं।
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