देख अपनों को सामने "अर्जुन",
का मन थरथर कापा।
शक्तिमान "गाण्डीव" भी हाथ मे,
लग रहा था ,नाकारा।
आये "माधव" स्वयं बन सारथी,
जब अंतर्मन से पुकारा।
दे उपदेश "गीता" का श्री हरि ने,
लगाया धर्म का जयकारा।
नजरिया बदला "अर्जुन" ने तो,
बदल गया पूरा ही नजारा।
कर्मपथ पर जो "पार्थ"रुक जाते तो,
क्या सच मे धर्म जीत पाता।
अपनों मे उन्होंने "अधर्म"को पहचाना,
शायद नजरिया ही इसे कहा जाता।
रुक जाते अगर "कदम" उनके,
तो क्या धरती पर पाप रुक पाता।
स्वयं को मान लिया हैं "अर्जुन"
कान्हा,अब मुझ पर भी कृपा बरसाना।
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