रश्मि बरनवाल "कृति"   ("कृति"✍️)
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Joined 18 January 2018


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Joined 18 January 2018

हे शिव!
संकट में भक्तों पर
कृपा बनाए रखना।
नाथ हो सबके
सिर पर हाथ लगाए रखना।
हिम्मत देना सबको
न करना निराश।
सबकी रक्षा करना
किसी की टूटे नहीं आस।

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सुख तो सब बाटेंगे मानुष! दुख ना कोई बाँटेगा,
क्यों सबसे कहकर रोता है, दुख अपने तू खुद काटेगा।

ये जीवन क्या? ये तो केवल सुख-दुःख की एक नैया है,
धीरज का बस थाम ले चप्पू तू ही इसका खिवैया है।
"जीवन ये दुःख का सागर है" का रोना क्यों रोता है,
हक में जो आई हैं खुशियाँ, अंजाने में खोता है।

सुख तो...
क्यों सबसे...

मुट्ठी बाँध के आया था और खुले हाथ से जाएगा,
हाय-हाय कैसी रे पगले! क्या खोया जो पायेगा।
हर मुश्किल में खुद को खुश रख खुशी बाँटता चल आगे,
और पलटकर देख ले बन्दे! दुःख तेरे तुझसे भागे।

सुख तो...
क्यों सबसे...

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जिसे आने दिया था
ज़िन्दगी में हमसफ़र सा...

जिसे पाने दिया खुद को
रहा वो बेखबर सा...

जिसे छाने दिया जेहन पर
अपने सुख़नवर सा...

उसे जाने दिया मैंने

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पुत्र की भूमिका निभाते वक्त,
माता-पिता के उम्मीदों पर खरा उतरना।

पति की भूमिका निभाते वक्त
पत्नी के हर अनकहे जज़्बात समझना।

पिता की भूमिका निभाते वक्त,
अपने बच्चों की हर जरूरतें पूरी करना।

अपने दर्द, अपनी जरूरतों को परे रख
सभी जिम्मेदारियों को भली-भाँति पूरा करना।

इन भूमिकाओं में पुरुष न हो,
तो फिर जीवन हो जाये व्यर्थ।
इतना भी आसान नहीं समझना
"पुरुष होने का अर्थ"।

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हमारे गाँव में जब किसी त्यौहार पर किसी अपने की मृत्यु हो जाती है तब उस घर के लोग पीढ़ियों तक उस त्यौहार को नहीं मनाते और कहते हैं कि वह त्यौहार हमारे घर में नहीं सहता, वैलेंटाइन्स डे पर हमारे देश के कितने ही वीर जवान शहीद हुए थे क्या आपको नहीं लगता कि
"हमारे देश में वैलेंटाइन्स डे नहीं सहता"?

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मेरा पूरा हुआ परिवार,
मेरे घर बाजे बधाई...
माता रानी ने सुन ली पुकार,
मेरे घर बिटिया आई...

नव वर्ष का नया उपहार,
नन्ही परी घर में मुस्काई...
जश्न दूना हुआ इस नए साल,
मेरे घर बिटिया आई...

राखी बाँधेगी जो हर साल,
बेटे की छोटी बहना आई...
पाएगी पापा का बहुत दुलार,
मेरे घर बिटिया आई...

पुलकित है ददिहाल-ननिहाल,
सब तऱफ खुशियाँ हैं छाई...
माता रानी ने सुन ली पुकार,
मेरे घर बिटिया आई...

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किसी के टूट गए सपने, किसी के छूट गए अपने।
उम्मीदों को रौंदकर निकल गया बीसवाँ साल।।
सबके होंठ मुस्कुराएं, रौशन हों ये फ़िज़ाएँ।
शुभ हो इक्कीसवीं सदी तेरा इक्कीसवाँ साल।।

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प्रेम विवाह नहीं किया था मैंने, घरवालों ने ढूँढा था वर मेरा।
किसी अंजाने को अपनाऊंगी कैसे? सोचता था मन ये अक्सर मेरा।।

सात दिन भी न मिले जानने को, कैसे बाँधूं सात जन्म के बंधन।
छोड़ घर अपना और अपनों को, कैसे जाऊँ भला मैं उसके संग?

दस बरस पहले आज के ही दिन, शुरू हुआ था नया सफ़र मेरा।
प्रेम सच्चा क्या हो भी पाएगा? मुझको सताता था ये डर मेरा।।

अपनों का आशीष साथ लेकर के, नए जीवन में रख लिया था कदम।
हाथ थामें हुए एक दूजे का, चल पड़े एक नए डगर को हम।।

प्रेम से भर दिया जीवन जिसने, बहुत प्यारा है हमसफ़र मेरा।
अब तो बार-बार करता है, शुक्रिया शिव को ये मन मेरा।।

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