अल्फ़ाज़ होंठों के मोहताज हुए,
लफ्ज़ दबे थे, बयां अब हुए।
ये एहसास जाने कब से है,
बस ख़बर अब है।
लफ़्ज़ों के उलझन से,
रिश्तों में गांठ हुए।
वो बस थे यहां,
पर शायद तब वक्त नहीं,
अब वक्त है,
और वो नहीं।
सिमट कर रह गए, वो जो उलझ गए थे,
ये सवाल तो कब के सुलझ गए थे।
अब जो सवाल उनसे थे,
वो खुद से हैं,
फिर क्यों ये खामोशी रही?
क्यों ये उलझन बाक़ी रही?
-