Ravi Jha   (Ravi)
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Joined 27 May 2020


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Joined 27 May 2020
2 AUG 2023 AT 7:25

मैं बागी रहूंगा उन महफिलों का,
जहां शोहरतें तलवे चाटने से मिलती हों,
मेरा पुरखा चाणक्य था,
की हमारे गोद में खिलता निर्माण और ध्वंस दिनों ही,
हमसे न हो सकेगा दरबार में किसी की चाकरी,
गर कुबत है मेरे सामर्थ में , पुरषार्थ में, लेखनी में,
तो पोषक "चंद्रगुप्तों" की कमी नहीं।

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8 APR 2023 AT 6:25

राधे के संग "परम ब्रह्म" होने का बोझ ना था,
उस प्रेम में"परमेश्वर" होने का भान तक नहीं,
तब ना था कोई दिव्यत्व – दबाव,
ना ही कोई श्रद्धा –आस,
बस सरल रास था,
"चमत्कार" भी मात्र गोविंद–शरारत,
अब खलता है, कमियों से वंचित होकर होने में,
"पटरानियों" के प्रभु होने में,
द्वारकाधीश होने से, कान्हा के खो जाने में,
हे रुक्मणि, सूचित हो, चुभता है,
रुक्मणि का "राधा" ना होने में।

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8 MAR 2023 AT 9:09

"धरती बनना बहुत सरल है, कठिन है बादल हो जाना
संजीदा होने में क्या है, मुश्किल पागल हो जाना
रंग खेलते हैं सब लेकिन कितने लोग हैं ऐसे जो
सीख गये फागुन की मस्ती में फागुन हो जाना..."
#HappyHoli

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15 JAN 2023 AT 9:36

When I was Outside Mithila

भोरे ऊठिते मिथिला मोन पड़ल '
तिला-संक्रतिक तिलबा मोन पड़ल ,
थर-थर करैत स्नानक देह ,
तैय पर घुड़ क आभा मोन पड़ल ,
चुड्लाई -मुड्लाई आ तिलकुटक संग
खिचड़ी क चार यार आ गुड्डी मोन पड़ल ,
कतय आबि गेलौं ई घुडदौरी मे,
तिथ देख सब पाबैन मोन पड़ल ,
आही बहाने फेर सँ एक बेर बचपन मोन पड़ल।

This Year

आठ बजल छल भोरे–भोर,
आ मां के खिसयेनैय फेर मोन पड़ल,
"तिला–संक्रन्ति में भोरे लोक नहाय छै,
आऽ चुडलैय–मुडलैय खैय छै आऽ तूँ सुतले रह् " से ताना सूनि पड़ल,
थर–थर् करैत स्नानक पुर्वक देह,
ताहि पर "पपियाहा" जल्दी कर केँ उपराग सुनि पड़ल,
एक कठोत चुड़ा – दहि आऽ रंग - रंग के गुड़क मिष्ठान, बरहल डायबिटिज पर चरहैत, देखि पड़ल,
"माय! ई सब खराब करत हमरा" पर
"एक दिन सऽ किछ नैय होय छैय, बनलाइथ ह् बरका बिदेशिया बनलैथ "
कऽ फेर सऽ एकबेर उलहनक् चोट पड़ल,
जरदस्ती खिचडीक् परसन पर परसन आऽ तरुआक आबेस टूटी पड़ल,
किया अइलौ हम "अपन मिथिला" अहि आबेसक दलदलि में,
ऐतेक खाना देख अहिबेर हमरा परदेशे मोन पड़ल,
मुदा, कत भेटत ई घरक' सभगोटेक' घुर् पर जुटान आऽ गप्प लहडी,
तिला–संक्रांति मऽ दुनियाँ भरक सुख आ स्वर्गक आनन्द बुझी पड़ल।



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20 SEP 2022 AT 11:35

भंग हुआ विश्वास,
अपनो से ही घात हुआ है,
घर से दूर निपट अकेले में जिनमे जहां था देखा,
उन चेहरों में कोई और चेहरा छुपा है,
मित्र कहां?
आस्तिन में ही सर्प मिला है
जिंन नयनों में निश्चल मन था खोजा,
उसमें बेआबरू करता कैमरा छिपा पाया है,
खिन्न मन, रिश्तों से उचट रहा,
इन चकाचौध उजियारों में फैले अंधियारों से डरा है।

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26 JUL 2022 AT 16:39

शहीदों की मज़ारो पर गया मैं तो,
लगा जैसे किसी दरख़्त से कोई रूह बोल रही,
हम थे तेरे मन मे -तेरे तन मे,
तन तो तेरा अब भी,मन भी है ही,
पर ना तन के आंशू मे,
ना मन की हाँसियो मे,
मेरा अफ़साना है,
हाय!क्यो भूल बैठे यूही,
क्या हम इतने बेगाने थे।

अनायास ही मन बोल उठा,
खुद के जड़ों पे उड़ेल उठा,
ना तन तेरा ना मन ही है,
ना संघर्ष तुझ सा है,
बस बचे मुखौटों में,
जो थीं तुम्हारे मूल्यों की धती,बस बची किताबों में,
पर अभी भी जब कभी सितम बढ़ाने लगे,
आस दिखता है, बस तेरी ही क़दमों के निशानी में।

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28 MAY 2022 AT 10:07

आलिंगन की चाहत में,
तेरे कब्र की मिट्टी गले में बांधे रखता हूं,
मां! तुझे मैं बहुत याद करता हूं।

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10 MAY 2022 AT 19:35

तू जब गईं तो गुलशन-ए-मोहब्बत बेजार हुआ,
तूने उधर घर बसाया और इधर मेरा शहर में आशियां भी न रहा,
बीतते सालों के साथ तेरे संग बिताए यादों का पिटारा गुलज़ार तो रहा,
पर उसे संभाले संभालें ,मैं खुद ही खुद को कंगाल करता रहा,
तूं तो सालों पहले ही बढ़ चली,
मैं हीं, बस , खा मां खां खड़ा रहा वहीं!
अब कई बरस बाद ही सही पर,
तेरे अश्क में नए नक्स उकेरने जा रहा हूं,
तेरी यादों की भित्तियां जो दिल में गहरी दबी थी ना,
उसमे किसी और के रंग से भरने जा रहा हूं,
साल दर साल तेरे जाने के बाद भी,
जो जिद्द की गांठ बांध रखी थी,
शायद,खोलने जा रहा हूं,
पगली! अब भी तेरी ही रजा मानने चला हूं,
सुनो ज़रा! मैं भी अब शादी रचा रहा हूं।

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8 MAY 2022 AT 5:58

ना शब्द ना ही रिश्ता,
मां तो बस हम सब के होने का किस्सा,
हम सबको जोड़ता ममता की डोर
जीवन जिसका सदा संतान की ओर ।

इसका आंचल जग का मूल ,
यही श्रृष्टि के अस्तित्व का बूटा,
जब जब खुदा भी जहां में आया,
मां के कदमों में ही शीश नवाया,

श्रृजन की धाती, जीवन त्राता,
तुम्हीं देवकी तूही यशोदा ,
संबंध की परिभाषा से दूर,
तू तो बस लल्ले की मैया,

मैं भी कान्हा सरीखा,मेरी भी है दो दो मैया,
एक ने जन्मा, दूजे ने है पाला,
अहो भाग्य जो दोहरा खुदाया पाया।

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23 JAN 2022 AT 17:20

रात भर खांस- खांस, थक कर सो रहा ,
लेतलतीफ था, हूं मैं,
दवाओं का पाबंद ना हो सका ,
कमजोर तो हूं,पर आश मिलन का दरख़्त सा,
जीवन- मरण संग संग देखता,
महबूब की राह में,साथ जाने की चाह में,
रात को भी, दरवाजा खुला ही छोड़ता,
ना जाने कब- कैसे तुझसे भेंट हो।

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