कस्तूरी हो चला है मन विचरत पूर्ण जीवन भर वन तृष्णा बन गई पीर भारी उपाय बताए कोई हो उपकारी छलती हैं लालसाएं लेके सुगंधित रूप मनोहारी खोज में इसकी भटकती रहूं सृष्टि कम पड़े सारी की सारी
रात्रि रचित षड़यंत्र है सारा जो सागर जल सम मन है खारा तिमिर में समाएं वृक्ष समक्ष हैं इनकी मेरी विवशता एक दूजे के समकक्ष है ये पग बढ़ाएं कैसे मैं तम में मार्ग विचारू कैसे