इक तरफ से तुम आओ, इक तरफ से हम आते हैं
जैसे पहले थे अजनबी... चलो, फ़िर वैसे बन जाते हैं,
जय हो अबके क्या पता, प्रेम की द्यूत शाला में
फ़िर खेलते हैं दांव "प्रिय", फ़िर किस्मत अजमाते हैं,
पानी से पानी की लहरों की, व्यर्थ की है यह स्पर्धा
किनारों से लगकर, चंद छींटे कहां कुछ पाते हैं,
पतंग की हवा से, क्या पता अब के निभ जाए
काटने से बेहतर, क्यों ना इसे मिलकर उड़ाते हैं,
मैं भीगने बैठा हूं, तुम खोलो जुल्फों के मेघ "प्रिय"
इस विरह की बारिश को, फ़िर संग अंग लगाते हैं,
समय ने छोड़ दिए हैं, उम्र के अबाधित तीर "प्रिय"
अब क्या पता कब किसको, यह अपना निशाना बनाते हैं,
तितलियों सी ख़ामोशी, स्मृतियों के गुलशन पे बैठी है
"प्रिय" आ जाओ तुम खुशबू बनकर, तुम्हें सूखे फ़ूल बुलाते हैं!!
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