मन में कुछ बात तो हैं पर,दिमाग बोलता कोई बात नहीं...
मचलते बहुतेरे अहसास हैं पर,गुम से हैं ना जाने ज़ज़्बात कही...
भीड़ में लगते हैं मुक्कमल से अपने सभी पर,फ़िर क्यों होती मुलाकात नहीं...
दिखता बहुत कुछ गलत सा हैं पर,बेतुके लोगो के लगते हर ख़्यालात सही...
श़ूल अनगिनत धंसे हैं ज़िगर में फिर भी,किसी से कोई सवालात नहीं...
कुछ तो तर्ज़ुबा हम भी रखते हैं पर,जाने क्यों ज़ाहिल इस ज़माने की ही वकालात रही...
ज़माने से ज़माने की ही फ़िक्र रही हैं इस दिल को, पर ख़ुद किस हाल में हैं बस यही मालूमात नहीं...
खुद में हूँ या फिर दुनिया की दोगली इस भीड़ में हूँ ग़ुम,आधी-अधूरी अक़्सर बस ये ही तहकीक़ात रही...
माना कि...जीने की चाहत में हर दम मिली मौत की सौगात ही सही...
पर जीने के लिए इस दुनिया में इस दुनिया से भी बेहतर कोई क़ायनात नहीं...
मन में कुछ बात तो हैं पर,दिमाग बोलता कोई बात नहीं...
मचलते बहुतेरे अहसास हैं पर,गुम से हैं ना जाने ज़ज़्बात कही...
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