Pratik Ranjan  
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Joined 3 January 2018


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Joined 3 January 2018
3 DEC 2021 AT 13:10

नस्ल जवान थी ख़ून मे उबाल था
मोहब्बत पहले वह लड़का बा-कमाल था

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7 OCT 2021 AT 21:51

जब जी ना लगा इश्क़ मे शायरी से इश्क़ किया
उससे बिछड़कर भी मैंने है उसी से इश्क़ किया

हमसे क्या पूछते हो सबब हमारी उदासी का
देखते नहीं क्या हमने है उदासी से इश्क़ किया

बस तुम्हें ही नहीं पता बाकी सबको ख़बर है
हद-ए-आख़िर तक हमने तुम्ही से इश्क़ किया

रात रह गया था पिंजरा खुला मगर उड़ा नहीं
यानी परिंदे ने भी कफ़स ही से इश्क़ किया

इसलिए भी तमाम गुज़री उम्र मयखानों में
फ़क़त साक़ी ने ही हम शराबी से इश्क़ किया

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3 OCT 2021 AT 10:29

मस'अला जो भी सरहद पार नहीं करते
हद से ज्यादा किसी से प्यार नहीं करते

दुश्मन इसलिए भी ज्यादा अज़ीज हैं मुझे
दुश्मन कभी पीठ पे वार नहीं करते

बाज़ार-ए-मोहब्बत हम भी नामी सेठ होते
मगर हम जिस्म का व्यापार नहीं करते

दिल-ए-बेज़ार जीना मुश्किल हो जाता है
शिद्दत-ए-इश्क़ दिल को बीमार नहीं करते

टूटे उम्मीद-ए-दिल तो दर्द-ओ-ग़म बेइंतहा है
इश्क़ एक तरफ़ा नहीं निभाते इंतज़ार नहीं करते

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4 SEP 2021 AT 2:42

बिछड़ उससे मैं भी ना किसी का रहा
मेरे ख़्वाब तक मे बसर उसी का रहा

बेकार  बदनाम  हुई  मौत  दुनिया मे
कहर  बरपा सबपे  ज़िंदगी  का रहा

ग़मों ने निभाया साथ सो अजीज हुए
ताउम्र  आना  जाना  खुशी का रहा

साँस थमने पहले नाम लिया उसका
यही फलसफ़ा दम-ए-आखिरी का रहा

छुपाकर रखता गया अज़ाब किताबों में
बाद हिज्र आलम बार-ए-बेकसी का रहा

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20 AUG 2021 AT 23:37

मुद्दतों गुज़री जिन बातों के वो तराने याद आए
ज़िक्र-ए-मोहब्बत कुछ ज़ख्म पुराने याद आए

शाम बाम-ए-फ़लक के हसीन नज़ारे देखकर
संग गुज़रे थे जो उसके मौसम सुहाने याद आए

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16 JUL 2021 AT 16:39

वादे महज़ लफ्ज़ो तक ना हो तो ज्यादा अच्छा है
कसमे महज़ बातो तक ना हो तो ज्यादा अच्छा है

लम्स-ए-सुकुन भी बराबर जरुरी है जीने के वास्ते
नींद महज़ खवाबो तक ना हो तो ज्यादा अच्छा है

ज़िक्र-ए-गम-ए-दर्द का भी एहतराम होना चाहिए
नग्में महज़ वफ़ाओ तक ना हो तो ज्यादा अच्छा है

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24 JUN 2021 AT 12:45

ज़िक्र-ए-मोहब्बत मुद्दतों बाद वो फ़साना याद आया
मिलना बिछ्ड़ना फिर मिलकर बिछ्ड़ना याद आया

आज फिर किसी ने पुरानी छोट पे हाथ रख दिया
आज फिर किसी का दिया जख्म पुराना याद आया

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21 JUN 2021 AT 7:29

तुझसे मिलने सारे जज़्बात निकल पड़े हैं
ये किस रास्ते पे मेरे खवाब चल पड़े हैं

तुझे भेजने को लिखे थे जो खत मैने
डायरी के पन्नों मे कहीं बेकल पड़े हैं

एक मुद्दत से हुई नही बरसात इस जमीं पे
एक मुद्दत से पलकों पे सजे बादल पड़े हैं

लब सूर्ख आँखें लाल चेहरा ज़र्द हो गया
तेरी याद मे हम लिए चाक दिल पड़े हैं

छ्टपटा के दम तोड़ रही खवाईशे धीरे धीरे
मोहब्बत की राह मे कितने दलदल पड़े हैं

तेरी जुल्फ़ों मे उलझाकर छोड़ा था जिन्हे
तेरी जुल्फ़ों मे उलझे मेरे वो गज़ल पड़े हैं

हश्र जानकर भी निकल पड़ते हैं सफ़र पे
राह-ए-मोहब्बत कितने पागल पड़े है

उसकी आँखें हैं या पैकान-ए-क़ज़ा कोई
जिसने देखा है उनमे होकर घायल पड़े हैं

पेड़ों को रौदते गुज़र गया सारा क़ाफिला
अब दयार-ए-दिल बस उजड़े जंगल पड़े हैं

कहाँ जाए क्या करें किससे दिल लगाए
यहाँ तो दिलों के अंदर भी अक़्ल पड़े हैं

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19 JUN 2021 AT 2:25

जा रहे हो अच्छा सुनो जाते जाते वो चराग बुझाते जाना
क्या है ना मै तुम्हारे लौटने की उम्मीद नही रखना चाहता

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17 JUN 2021 AT 8:14

जो दिल से ना निकली वही इक आह हूँ मै
अपनी खवाईशों का मुकम्मल कब्रगाह हूँ मै

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