मां—रोज काम करती हैं, रोज थकती हैं,
दर्द भी होता है उन्हें पर वो कभी नहीं सिसकती हैं।
पापा—रोज काम पर जाते हैं,रोज देर से आते हैं,
मेरी इच्छाओं के लिए,रोज कुछ नया लाते हैं,
पैसे नहीं बचते हैं,पर वो कभी नहीं बताते हैं।
मेरी इतनी सी ही तो दुनियां है,
बाकी सारे रिश्ते बस नाम कमाते हैं।
जिनके होने से हमारा साहस हर दिन निखरता है,
एक परिवार ही तो है,जो हम पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करता है।
रोज नए रिश्ते बनते हैं,रोज टूट जाते हैं,
हम कितना भी आगे बढ़ जाए,पर परिवार हम कहीं और नहीं बना पाते हैं।
हमेशा परिवार साथ हो न हो पर यादों में भी इनके सपने होते हैं
क्योंकि अपने तो बस अपने होते हैं।
—प्रज्ञा कश्यप
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