Prachi Sachdev   (Prachi 'फेबा')
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Joined 4 June 2018


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3 SEP 2020 AT 20:24

बरसती छत, टपकता नल
खिड़की-दरवाज़ों पर लगी दीमक,
दीवारों पर फ़ीकी पड़ती पुताई...
तंग कमरों की वो अंगड़ाई...
बिजली की तारों का जमावड़ा,
और टीवी की डिश में दिखता है
नये ज़माने से जुड़ने का जज़्बा कड़ा।

ये टूटे-फूटे मकान भी
हज़ारों कहानियां कहते हैं,
के आज भी कुछ लोग,
इतिहास के गलियारों में जीते हैं...

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3 SEP 2020 AT 20:10

बड़ा बेमुरव्वत है
ये दर्पण
जब देखती हूं इसमें
अक्स अपना...
सच कह देता है।
मन के टूटे तार,
बिखरे हुए रिश्ते,
और, दिल पे लगी चोट
सब, आंखों में उतार देता है।
ये दर्पण...सुब्हो-शाम
थोड़ा-थोड़ा मेरे ज़ख्मों को कुरेदता है...
ये दर्पण...हर रोज़
मुझे सच से रूबरू करा देता है...
ये दर्पण...अब तो
मुझे मेरे रकीब-सा लगता है।
ये दर्पण...

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12 JAN 2020 AT 0:57

ए-बन्दे उठ बुलंद हौंसले कर ले...

तेरी किस्मत क्या वो बदलेगा
बंद तालों में जो ख़ुदा बैठा है!

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7 DEC 2019 AT 23:22

तू हमसफ़र है किसी और का,
मेरा हमदम कोई और है!
कभी कम न होंगे तेरे-मेरे बीच के ये फ़ासले...

दिल नादान है, वक़्त के साथ समझ जाएगा
कुछ कहानियों का अधूरा रहना ही अच्छा है!

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12 SEP 2019 AT 17:41

मन तो अब भी बच्चा है।
थोड़ा झूठा थोड़ा सच्चा है।

मन तो अब भी बच्चा है।

बचपन का अल्हड़पन
नासमझी और नादानियां,
फ़िर से करना चाहे दिल
वो प्यारी सी शैतानियां।

पर जब भी हंसी ठिठोली
मैं करती हूँ सखियों के संग...
माँ कहती है-
'लोग क्या कहेंगे,
ताड़ सी लम्बी लडकी हो गई है
पर बेवकूफियां नहीं छोड़ रही है!'

मैं चिललाई, रोई, गिडगिडाई...
मन, मन तो अब भी बच्चा है माँ
मन तो अब भी बच्चा है।

माँ टस से मस न हुई।

मैं समझ गई
माँ को भी समझा न पाऊँगी-
बेवकूफ़ी नहीं है मेरी हंसी।

ये मेरी जीने की चाह है;
ये मेरी जीने की राह है।

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20 AUG 2019 AT 21:36

अजनबी सा हमसफ़र पहचाने रास्तों पर,
अब तो ये फ़ासला भी अच्छा लगता है।

इश्क हमने करके देख लिया। दर्द से गुज़र के देख लिया।
साथ फक़त तन्हाई का सुकून देता है।

इक साकी है जो हर शाम मेरे नाम लिख देता है,
झूठा ही सही प्यार तो जताता है।

उम्मीद-ए-वफ़ा तो कब से तोड़ आई 'फेबा'
दिल नहीं टूटेगा अब, पत्थर इसे हालात ने बना डाला है।

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16 AUG 2019 AT 19:03

दिल की आदत है बुरा मान जाता है छोटी छोटी बातों पर।
अभी दुनिया के दस्तूर से वाकिफ़ नहीं है ये!

न उठा 'फेबा' ज़हमत इसे मनाने की,
ठोकरें खा कर, किसी रोज़, ख़ुद ही सम्भल जाएगा।

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13 AUG 2019 AT 21:16

आज फ़िर दिल को तमन्नाओं ने घेर लिया,
आज फ़िर ज़िन्दगी से हमने इक ख्वाईश की;
आज फ़िर वक़्त ने खुद को दोहराया;
आज फ़िर हमने तकदीर से लड़ने की जुर्रत की।

यूँ लगा मुदतों के बाद घर लौट आई 'फेबा'।
यूँ लगा मुदतों के बाद नई सुबह हुई।




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2 AUG 2019 AT 22:50

ढीठ होते हैं कुछ ख़्वाब...

सोने भी नहीं देते,
पलकों से टूटते भी नहीं।

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2 AUG 2019 AT 22:45

कुछ यूं भी हम रिश्ते निभाते चले गए,
वो जख़्म देते रहे, हम छुपाते चले गए।

दर्द जब तलक दिल ही में सीमित था,
हम सिसकियाँ अपनी दबाते चले गए।

जो उँगलियाँ उठाने का हुनर सीख गया रफीक,
सब्र से दामन हम भी छुड़ाते चले गए।

थोड़ी गलतफहमियां हैं, थोड़ी शिकायतें दरमियां,
और फ़ासले इतने कि तय न वो कर सके, न हमसे मिटाए गए।

कुछ वो पीछे न मुड़े, कुछ हमसे क़दम न मिलाए गए।
बस अजनबी बनकर, यूँही ज़िन्दगी बिताते चले गए।

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