बरसती छत, टपकता नल खिड़की-दरवाज़ों पर लगी दीमक, दीवारों पर फ़ीकी पड़ती पुताई... तंग कमरों की वो अंगड़ाई... बिजली की तारों का जमावड़ा, और टीवी की डिश में दिखता है नये ज़माने से जुड़ने का जज़्बा कड़ा।
ये टूटे-फूटे मकान भी हज़ारों कहानियां कहते हैं, के आज भी कुछ लोग, इतिहास के गलियारों में जीते हैं...
बड़ा बेमुरव्वत है ये दर्पण जब देखती हूं इसमें अक्स अपना... सच कह देता है। मन के टूटे तार, बिखरे हुए रिश्ते, और, दिल पे लगी चोट सब, आंखों में उतार देता है। ये दर्पण...सुब्हो-शाम थोड़ा-थोड़ा मेरे ज़ख्मों को कुरेदता है... ये दर्पण...हर रोज़ मुझे सच से रूबरू करा देता है... ये दर्पण...अब तो मुझे मेरे रकीब-सा लगता है। ये दर्पण...