हम भूल गये हैं , वक्त की वक्त से कद्र करना हम भूल गये हैं, खुद से खुद की निभाना हम भूल गये हैं, एक दिन ऐसे ही चले जाना हम भूल गये हैं, मन से मन का हार जाना ।।
कोई "मीरा" कब "सत्य" की हो जाती है ? अंशु, कल्पना की गोद में खिल जाती है। देख चांदनी "पूनम" यूं ही पागल सी हो जाती है कौन कहें और किससे ? , अर्थ के अनर्थ किस्सें दांव इश्क़ है यदि तो "हारना" स्वीकारती है स्मृति ही इश्क़ ,शेष यदि तो कैसे ये हार हो जाती है ?
तुम मिल रहे हो गैरों से, ये सारा जहां जानता है दिल नासमझ है इस ख़्याल से , क्या क्या जानता है बहुत दर्द दिया है तुमने, अब ये बवाल जानता है तुम्हें छोड़कर जीना चाहता नहीं,और ज़िना जानता है।।
वो जो हम पर गुजरी है दिल से क्या गुजरी है ? इसी गुजर बसर करने को ज़िन्दगी क्या मिली है ?
मयखानें ताक आए हैं सब पर एक सी ही कहां गुजरी है? कोई मय के लिए तरसता है यहां कुछ ने ख्यालों की ही पी ली है ।।
मजबूर सब है यहां , मजबूरी सबने जी ली है वक्त के हाथों सब बिके, खैरियत किसने किसकी ली है? हाथों से छुपाए हैं ग़म बहुत से फिर हाथों पर ही सब गुजरी है ...