हरदम भागती दौड़ती थकाती इस कोलाहल भरी दुनियाँ में सब सपने सच करने में लगे है अपने भी अब ग़ैर लगने लगे है तब ये सन्नाटा अपना सा लगता है अब ये सन्नाटा ही अच्छा लगता है
वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं जिसमें कोई बवाल न हो वो जवानी जवानी नहीं लहू में जिसके उबाल न हो वो मंज़िल मंज़िल नहीं रास्ता जिसका तबाह-हाल न हो वो आदमी आदमी नहीं सीने में जिसके शेरदिल विशाल न हो