PAVAN PATEL   (अल्फाज-ए-पटेल...!!)
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मेरे अल्फाज है पर मै नही हूँ।
मत सोचना की कातिब खुद को लिखता है।।
Joined 5 April 2019


मेरे अल्फाज है पर मै नही हूँ।
मत सोचना की कातिब खुद को लिखता है।।
Joined 5 April 2019
21 FEB AT 19:43

मौसम जो पिछली रात नबाबों के शहर था,
पछुआ का जोर था या अस्बाब ए सनम था,
सोचा ही था कि अब्र की बारिश भी रुक गयी,
बजह ए शबाब था या अल्लाह का रहम था..!!

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18 JUN 2023 AT 14:46

हर पहलू में पिता रमे हैं....

घूट चलन से दौड़ भरन तक,
प्रथम परख से समझ बनन तक।
पहली ठेब से खुद संभलन तक,
रबड़ पैन से फीस भरन तक।।

हल की नोक से क्षुधा शमन तक,
प्रथम कौंप से बृक्ष बनन तक।
प्रेम करन से प्रेम बनन तक,
दुख को सुख संदेश करन तक।।

आश लगन से आश बनन तक,
आश गिरन से आश बंधन तक।
शुभ सृजक से शुभचिन्तक तक,
सबकुछ से कुछ सब होने तक।।

हर पहलू में पिता रमे हैं...।

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20 APR 2023 AT 13:42

फिर से ये दहशत की दस्तक बढ़ेंगी,
फिर से ये रौनक-ए-कौंपल मरेंगी,
अब फिर से पिंजरों के धंधे बढ़ेंगे,
अब फिर से बुलबुल भी कैदी रहेंगी..।

अब फिर से सिलवट सी माथे पे होंगी,
हर बेगुनाह अब गुनाही सी होंगी,
फिर से अदालत यूँ घर पे लगेंगी,
जिसमें सलाखें रिहाई पे होंगी..।

अब फिर से कपडों की मापें बढ़ेंगी,
अब फिर से चुल्हे पे उंगलीं जलेंगी,
अब फिर से घातों में होंगे शिकारी,
हिरनी को शेरों की रक्षा लगेंगी..।

फिर सबको टपरी पे खबरें मिलेंगी,
अखबार के फिर से अंधे जगेंगे,
फिर ये वही एक बर्दी में गुण्डे,
फिर से वही बोट धंधे बढ़ेंगे...।

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16 APR 2023 AT 18:25

सुबह उठता हूँ जीने की तमन्ना कर,
कुछ सांस तक जीता हूँ ठहर जाता हूँ,
सब रोज इसी कोशिश-ए-आँधी के संग,
हर रात को विस्तर पे मैं मर जाता हूँ..।।



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27 FEB 2023 AT 12:28

सही क्रम 'सुनना-कहना' है।
'कहना-सुनना' तो अहंकार का सूचक है।





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31 OCT 2022 AT 21:14

हम जल्द लौटेंगे उन गलियों में,
शायद गूंज बनके या चुप्पी-ओ-सिस्की बनके।

हमारी आहटें फिर से होंगी मौसमों संग,
शायद बहार बनके या पतझड़-ओ-तुषार बनके।

हम फिर से होंगे जानने वालों संग,
शायद उम्मीद बनके या अफसोस-ओ-गम बनके।

हमारे अल्फ़ाज़ फिर से गूंजेंगे फिजाओं में,
शायद आग बनके या ओस-ओ-हवा बनके।

हमारी मौत के भी मायने होंगे हजार,
शायद मिसाल बनके या बेतुक-ओ-बेकार बनके।

हम जल्द पायेंगे जवाब इस "शायद" का,
'शायद' हंसीं याद बनके या काश-ओ-आश बनके।

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7 OCT 2022 AT 13:37

इक तलबार तुम्हारी तो, इक शमशीर जनानी की,
गर योद्धा हो रण के तुम तो,युद्ध धरा जनानी की,

गर पौरुष का मान तुम्हे तो,संघर्षों का ज्ञान उन्हें,
गर पर्वत व्यक्तित्व तेरा तो,सागर सा अपनत्व उन्हें,
गर बादल की गरज तुम्हें तो,विजली की झनकार उन्हें,
गर बरगद का तना तुम्हें तो,स्थिर जड़ उपमान उन्हें,
कुछ मंजिल का मकां तुम्हें तो,घर करने का भान उन्हें,
सृजन के आरम्भ हो तुम तो,किलकारी आधार उन्हें,
गर पालन का इल्म तुम्हें तो,पोषक का सम्मान उन्हें,

अब तो जग को जगना होगा,जगकर के प्रभात चुनें।
नर-नारी इक-दो के पहलू,"पूरक" बन सम्मान जिन्हें..।।

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5 OCT 2022 AT 0:13

। ..स्थिर साध्य का चयन आपको सीमित कर देता है..।


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21 SEP 2022 AT 22:28

हास्य गया,उपहास्य गया, गमशोधन का विश्वास गया,
रोते चक्षु की खुशी छिनी, खिलती पलकों का वास गया..।
खिल-खिल करते सब कंठ रुंधे,होंठों पर शिथलन छायी अब,
कुछ रसिक धर्म का पक्ष गया,कुछ 'अश्रु धर्म आधार' गया..।।

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13 SEP 2022 AT 19:26

'तसब्बुफ' न सही पर 'हाल'-ए-एलान बाकी है,
तेरे दर का कयाली बन मरा शैतान बाकी है..।
अभी लाश-ए-तमन्ना और मुझको फूंक लेने दो,
अभी तो अथ हुआ मेरा,अभी शमशान बाकी है..।।


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