शर्म भी शर्म से डूब मरे, वो काम किया इन नीचों ने
झांक रही है नैतिकता सर झुकाये कहीं दरीचों से,
रोती है मणिपुर की कलियाँ हो निर्वस्त्र चौराहों पर
सोता है माली बगीचे का, जूं नहीं रेंगती दरबारों पर
मानवता ने निज मुख म्लान किया,देखा जब अपना उपहास
क्या यही है भारत की गरिमा,जिस पर मैं करती थी नाज
उस पर भी ये भरी भीड़ में खेले ममत्वीय उरोजों से
चीत्कार उठा मानवता की घायल आत्मा की खरोंचों से
पराजित हुआ द्वापर का दुःशासन, त्रेता के रावण ने भी हाथ जोड़ लिए
कलियुग के शैतान जब उतरे, इनको भी पीछे छोड़ दिये
नग्न सिर्फ दो बाला नहीं,पूरे देश के कपड़े उतरे हैं
हुंकार उठाये व्यथित ह्रदय, झुके हुए हर चेहरे हैं
पतन निश्चय है, अटल सत्य है, इतिहास स्वयं को दोहराता है
प्रत्येक दुशासन चीर हरण कर अपना मस्तक चिरवाता है
प्रश्न यही है दरबारों से, ये आखिर होना ही क्यूँ था
पूर्वोत्तर की पावन धरती पर कलंक लगना ही क्यूँ था
शर्म करो सरकारों अब सिर्फ भाषण से काम नहीं चलता
झूठे गुस्से और वादे के शासन से काम नहीं चलता
धृतराष्ट्र ना बनो खुली आँखों के,निकलो सत्ता की दुकानों से
चुप ना रहो कुछ तो सीखो इतिहास के काले पन्नों से
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