आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी,
सोचा कुछ हिसाब कर लें,
ख़फ़ा किया था जिन दोस्तों को
उन दोस्तों से माफ़ी मांगी जाए,
उन्हें कुछ भी कर के मनाया जाए,
जो चारागर रोशन करते थे हमारी ज़िन्दगी को
उन्हें खुद हमने अपने हाथों से बुझाया था,
उन चारागरों को फिर से जलाने का प्रयास किया जाए,
ग़र मरना ही है मंज़िल इस ज़िंदगी के सफ़र की,
तो क्यों न सब को खुशी देकर ही मरा जाए,
जो लोग उठाते हैं हमारे चरित्र पर उँगलियाँ,
अपना चरित्र नहीं देखते,
क्यों न उनको भी आईना दिखा कर मरा जाए
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