रात के राही जाने क्यों बनते हैं..! शायद चांद के पास चमकता वो तारा जो बदलते गुजरते लम्हों में अंत तक साथ की उम्मीद जगाता है, या शायद दूर टिमटिमाती घरों के बल्ब की रोशनी उम्मीद को साथ रखती है, या अंधेरों में जानी पहचानी राहें भी अंजान रास्तों का मज़ा देती है या जाने पहचाने रास्तों को नजरंदाज करने में सहूलियत रहती है। शायद ये मसला हो की नया सवेरा नई जगह में ज्यादा खुबसूरत लगेगा या शायद अपनी जगह से दूर जाने की तकलीफ़ ज़माने को ना दिखे। वजह - बेवजह हम भी शायद बन रहे हैं.. राही रात के..!!