हे पार्थ।
रथ को अब उस और ले चलो।
की जिस ओर,
प्रकृति खुद को खुद से सवारें हुए हो,
पानी की कलकल ध्वनि असीम सुख लिए,
झर झर झरनों से झरते हुए,
पहाड़ों के पत्थरों से गिरते हुए,
जहां पर्वत की पर्वत माला,
बाबा बर्फानी समान प्रतीत हो,
जहां, चाय भी सोमरस का आनंद दे।
इस सांसारिक मोह माया से दूर
वहां, जहां छणिक सुख भी,
जीवन की अभूत स्मृति बन जाए,
चलो पार्थ।
"कभी तो भगवान का भी मन हुआ होगा, महाभारत के रण को छोड़,
हस्तिनापुर से थोड़ी दूर, हिमाचल की गोद में, जाएं।
इस बालक की भी बालआकांक्षा यही हैं।
~ नीलरतन
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