Nikhil V Mishra   (Nikhil V Mishra)
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Joined 16 May 2018


Joined 16 May 2018
3 FEB 2023 AT 2:23

एक ऐसी जगह,
जहाँ सिर्फ तुम बोल सकतें थे
तुमने मौन रहना चुना !
एक ऐसा वाक्य,
जिसे सिर्फ तुम नकार सकते थे
तुमने खामोशी से सुना !
एक ऐसा व्यक्ति,
जिसके बारे में सिर्फ तुम जानते थे,
तुमने अपरिचय जताया !
दो ऐसी आंखे,
जो हरदम इंतजार बनी रही,
तुमने भुलाना सीखा !
कुछ ऐसे घाव
जिनके ज़ख्म कभी भरे ही नही,
तुमने बारबार छुआ !
कुछ ऐसे लोग
जो जिंदगी में कहीं नही होते,
तुमने विशेष समझा !
कुछ ऐसे स्पर्श
जिन्हें तुमने बहुत खास समझा,
तुम उनसे भयभीत रहे!
कुछ ऐसे चहरे
जो तुम्हे देख मुस्करातें थे,
एकदिन उदास हो गए!
कुछ ऐसी उम्मीदें
जो सिर्फ तुमसे रखी गई!
तुमने उन्हें अवसर चुना ।

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7 JAN 2022 AT 16:37

जैसे ..... तुम्हें आते हैं....
ना आने के बहाने....

वैसे ही .... किसी रोज ....
ना जाने के लिए आ...

रंजिश ही सही...
दिल ही दुखाने के लिए आ..!

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7 DEC 2020 AT 17:20

अपनी पपनियों के पर्दे संभाले निहारती है ये कब से, तुम्हें अब तलक ढूँढती है,
तुम वो खनकती हँसी लेकर आना,ये आँखे बस तुम्हारी ही एक झलक ढूँढती है !

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4 DEC 2020 AT 20:01

वो कभी सौंप देगा ऐसा बेशकीमती गुलिस्ताँ मुझे,
आज मैं हैरान अपने उस खुदा मेहरबान पे हूँ !

सौ कलियां भी है, मैं सिर्फ उसका मुसल्लत भौंरा,
बस मंडराता अपनी उस प्यारी सी एक जान पे हूँ !

ताज है चरबा उसका, मैं शाहजहाँ से भी बढ़कर,
सात जनमों का हो आसरा, ठहरा जिस मकान पे हूँ !

कभी तुम ही ना उत्तार देना इन बलंदियों से मुझे,
हाँ, मेरा पहली दफा है जो इतनी ऊँची उड़ान पे हूँ !

दिल्लगियां देखी होगी, बेशक होंगे तुम्हें चाहने वाले,
मैं सच्चे इश्क़ में हूँ और इसके सातवें आसमान पे हूँ !

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27 OCT 2020 AT 17:24

पल दो-पल की है ये जिंदगी,
कब तक रहें हम दोनो तन्हा,
हमने तो इशारें हजार की है,
अब आप भी दो-चार कीजिये!


दो आँखों से कितना देखोगे,
बहुत कुछ बाकी रह जायेगा,
इधर आइये, हमसे मिलिए,
आप हमसे आँखें चार कीजिये!

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20 OCT 2020 AT 18:57

कितना बेचैन-सा हो गया हूँ, एक सुकून की तलाश में...
कितने जुगनू भरे हुये हैं, कैसे रह लेते हैं ये आकाश में...
कैसी अजीब है जिंदगी,बीती जा रही बस एक काश में...
अपना नहीं लगता कोई मुझे,मैं ही तो नहीं बदहवास में...
जो मेरा नहीं था कभी, क्यूँ है वो मेरे रूह व एहसास में...
सौ रकीब बिठा रखे है, सिर्फ मैं ही नहीं उसके पास में...
वो अकेला नहीं था, कई नकाब भी थे उस लिबास में...

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12 OCT 2020 AT 13:05

सोलह सजाकर भी जो एक कमी-सी रह जाती है...
तुम्हारा वही "सत्रहवां" श्रृंगार हूँ मैं...!

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9 OCT 2020 AT 17:11

जर्र-जर्र की आवाज़ करते इतनी धीमी चलती है छत से लटकती ये पंखा, जैसे मायूसीयों की उँगली थामे चल रही हो ज़िंदगी मेरी..!

खिड़कियों से बाहर जब देखता हूँ, दिखती है इन अंधेरों भरी उजालों में सिर्फ रौशनी की रिक्तियाँ, जैसे बिन-तुम अब रिक्त हो ज़िंदगी मेरी..!

ऐसा महसूस होता है फर्श की इन दाग-धब्बों को देख, जैसे जमाने के उन तानों की छीटों से भरा था ये चरित्र मेरा, जब छोड़ मुझे यूँ ही चली गई थी तुम..!

देखता हूँ जब दीवारों की इन दरारों में लटकती बालुओं की ये निशान, याद आतें है जमाने की वो कुरीतियाँ जिसे हम-तुम अब इस जनम मिटाने से रहें..!

कितना कुछ हैं इसमें मेरे जीवन के पर्याय जैसा, सुनो, मुझे बुरा लगता है जब लोग इसे "पुराना मकान" कहते हैं..!

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7 OCT 2020 AT 18:41

Ye jo 'Tum' Chup-Chup ke kiye jaa rahe ho...

Ye bhi "IshQ" hai...

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26 JAN 2019 AT 10:08

अल्फ़ाज़ नये...जज्बात नये...
दिन नये और रात नये...
बहके सारे ख्वाब नये...
कैसी नैया और डोर लिये
है अब किस छोर
चला तू...?
भूल कर अपनी माज़ी को
ना जाने किस ओर
चला तू...?

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