वो मेरा था,मुझसे दूर नहीं था।
अब्बा के उसके मंजूर नहीं था।
बड़े शौक से निकाला जनाजा इश्क का,
कौन कहता है कि वो मगरूर नहीं था।
मैं हिंदू वो मुस्लिम बस इतनी सी बात थी।
हम दोनो के दरमियां बस धर्म की जात थी।
हम अलग न होते तो कुछ और होना तय था,
इश्क और धर्म दोनो के लिए कयामत की रात थी।
उसकी निगाहों में, अपनो का मान था।
मेरी आंखों में उसके लिए सम्मान था।
कैसे देखता उसे फिर बेआबरू होते हुए,
पराया मान लिया उसे जो मेरी जान था।
मेरे दर्द भरे नगमे पढ़ पलके भिगोती है।
मैं हिंदुओं में तो वो मुस्लिमों में रोती है।
बस फर्क सिर्फ इतना है कि मैं तन्हा हूं।
और वो किसी के सीने से लग के सोती है।
इश्क़ को या रब्बा कोई आंखें लगवादे।
अपने ही धर्म में हो बस इतना सिखलादे।
कोई "नाज़" फिर जीने को मोहताज न हो।
कोई हंसते "नवीन" को अंधेरों में न डूबा दे।
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