शिकायतों में छूटा हुआ अनकहा
हवा में विलीन हुई प्रार्थनाएं
कहीं नहीं जाती दर्द में निकली आहें
अंधेरे में बढ़ रहे हैं हाथ
टकरा रहे हर जानी पहचानी चीज़ से
अपना ही कमरा नहीं पहचानती मैं
भूल चुकी हूँ इसको या ये मुझको
कमरे में ठहरे हुए लोग चले जाते हैं
और कमरे हो जाते है नाराज़, तन्हा, अकेले
और लौटने पर हमारे
धकेल देते हैं हमें अजनबी सा बाहर
क्यूँकि कमरे कहीं नहीं जाते
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