निर्भरता, और मोह लगाव, हैं प्रेम नहीं, बस यही विकार
भक्ति समर्पण प्राकृतिक है, हो न इसमें कर्त्तव्य का भार
हम दूजे पर निर्भित न हो, है बस मेरा यही विचार
निर्भरता तो घिस देती है स्वयं पे बन जाते हैं भार
प्रेम तो है अम्बर में पक्षीं, पिंजरा लाता बस अंधियार
प्रेमी है एक घर के जैसा, घर ही लौटू मै हर बार
भटकाव से घर ना खोता, प्रेम बनाता ये आकार
बनना है हमको भी वो घर, जहां मन हो स्थिऱ, हो हृदय में प्यार
मिलन- विरह न मतलब रखते बेपरवाह होता है प्यार
खुशी तुम्हारी चाहुं मैं, न चाहुं तुम से ख़ुशी - बहार
विरह भी तभी जरुरी है ,दोष विकार करने को पार..
(Read in Caption)
❤️ अलविदा कृष्ण
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