रिश्तों के मांजो में,
सिमट से गए हैं,
अपनी ही पतंग की डोर मे,
जिसके पास खुला आसमां तो हैं,
पर डोर नही,
उलझ से गए हैं,
किसी और पतंग के आने से,
डर सा लगने लगा हैं,
खुद के कटने का,
मिट ही गए हैं,
अपनी ही उलझनों मे,
गिरने लगे हैं, अपनी ही उचाईयों से,
जहाँ ना जमीं का पता
और ना छत का,
उलझ से गए हैं
अपने ही इस अंत से।।
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