खिड़की खोली, खुली रह गई, बंद नहीं कर पायी।
मनमोहक था दृश्य सामने, पलक नहीं झपकायी।।
वृक्षराज की एक डाल पर, थी कोयलिया गाती।
पंचम स्वर में कूक-कूककर, थी वह हृदय लुभाती।।
उसने खिड़की बंद नहीं की, लगी स्वयं भी गाने।
किसी अन्य को नहीं, स्वयं को, अपना गीत सुनाने।।
मंत्रमुग्ध हो गयी स्वयं पर, इतना मीठा गाया।
हर छिपकर सुनने वाले का, उसने हृदय चुराया।।
आओ बंद न करें खिड़कियां, दिल की खिड़की खोलें।
ऋतुपति के स्वागत में गाकर, आत्ममुग्ध हम हो लें ।।— % &
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