महेश चंद्र त्रिपाठी  
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Joined 20 November 2018


Joined 20 November 2018

खिड़की खोली, खुली रह गई, बंद नहीं कर पायी।
मनमोहक था दृश्य सामने, पलक नहीं झपकायी।।

वृक्षराज की एक डाल पर, थी कोयलिया गाती।
पंचम स्वर में कूक-कूककर, थी वह हृदय लुभाती।।

उसने खिड़की बंद नहीं की, लगी स्वयं भी गाने।
किसी अन्य को नहीं, स्वयं को, अपना गीत सुनाने।।

मंत्रमुग्ध हो गयी स्वयं पर, इतना मीठा गाया।
हर छिपकर सुनने वाले का, उसने हृदय चुराया।।

आओ बंद न करें खिड़कियां, दिल की खिड़की खोलें।
ऋतुपति के स्वागत में गाकर, आत्ममुग्ध हम हो लें ।।— % &

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भारत के तीन ओर सागर
सागर कहलाता रत्नाकर
सागर से समुद्भूत लहरें
नर्तन करती हैं इठलाकर

हर लहर लहर कहलाती है
आकर तट से टकराती है
जिसमें जितना उद्दाम वेग
वह उतना शोर मचाती है

कुछ दर्शन कर सुख पाते हैं
कुछ स्वयं लहर बन जाते हैं
कुछ तट पर खड़े खड़े केवल
लहरें गिन मोद मनाते हैं

जल और लहर में कुछ अंतर
मानते नहीं हैं विद्वत्वर
जल में ही लहर लहर में जल
अन्योन्याश्रित लगते मनहर

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तुमने अपनी हार न मानी
मैं भी अड़ा रहा
तुम न बैठ पायी, इस कारण
मैं भी खड़ा रहा
कौन फैसला कर पाता फिर
हमको समझाता
हो न सका फैसला अभी तक
सब जग भरमाता

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जो प्रतिकूल परिस्थिति में भी रखते हैं विवेक को जाग्रत
महक जिन्दगी के गुलाब की करती हरदम उनका स्वागत
उनके जीवन दीप न बुझते झंझाओं—तूफानों में भी
सदा स्रवण-रन्ध्रों में उनके गूंजा करती ध्वनि दूरागत ।👏

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निष्काम कर्म जिसका स्वभाव, जो शुभ संकल्पों का स्वामी
उससे बढ़कर कोई न अन्य, हम बनें उसी के अनुगामी
जो देता सबको अभयदान, जो हरदम निर्भय रहता है
उसके संग विचरण करता है रहकर अदृश्य अन्तर्यामी ।

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शब्द की पहचान होना चाहिए
अधर पर मुस्कान होना चाहिए
रूप पर आशक्ति है अच्छी नहीं
गुणों का गुणगान होना चाहिए

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प्यार एक पंछी है जिसका उड़ना बहुत जरूरी
उड़कर ही यह तय करता है दिल से दिल की दूरी
इसे कैद करना पिंजरे में उचित नहीं, अनुचित है
दिल में ही निवास करता यह, यह इसकी मजबूरी

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कृपया, रचना अनुशीर्षक में पढ़ें

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यत्न किए जा अविरल अविकल
जीत यकीनन होगी
ऐसा सच्चा मीत मिलेगा
कभी न अनबन होगी

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भूखा व्याकरण नहीं खाता
प्यासा न काव्यरस पीता है
भूखे होता है भजन नहीं
पानी बिन जीव न जीता है

आओ भूखे को भोजन दें
सुविचार न उसे सुनाएं हम
पानी पर्याय जिंदगी का
प्यासे की प्यास बुझाएं हम

रोटी कपड़ा छत सुलभ जिसे
कविता उसको ही भाती है
प्रिय लगते उसको अलंकार
छंदों की छटा लुभाती है

हक छीन दूसरों का जो जन
अपना घर-द्वार सजाते हैं
वे पीड़ा पाते दुर्निवार
वे बिना मरे मर जाते हैं

जो भला दूसरों का करते
भूखों की भूख मिटाते हैं
जो प्यास बुझाते प्राणी की
वे अविनश्वर यश पाते हैं

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