वक्त-ए-रुकसत उसने देखा था मुझे आँख भरके और फिर रखकर अपनी हथेली पर गुलाब की पंखुड़ियों के लाल साये मेरी ओर उड़ा दिए उसके लबों को वो सुर्ख खुशबू जो उतरती नही मेरे गालों से जब कभी बे-ख्याली में छूता हूं वो खुशबू हाथों से मेरी उंगलियों को उसके होंठों का तसव्वुर होने लगता है।
एक खूनी हूँ मैं लफ़्ज़ों का नीला खून लगा है मेरे हाथों पर
कई नज़्में क़त्ल की है मैंने बोहतों को ज़हन की कोख में भी मारा है जब वो ख़याल की सीपी में क़ैद थी कुछ नज़्में कुछ वक्त बाद मेरे मुताबिक़ नही रही तो उन्हें स्याही तले दफ़न कर दिया जो नज़्में आधी अधूरी अपाहिज़ थी जो कामिल ना हो सकी मुझसे उन्हें उसी कोरे कफ़न में मरोड़ कर फ़ेंका है
धुली शाम की सुर्ख सुनहरी और चाँद भी बस आने को है गर चाँद आज आया तो कहाँ बैठेगा थक कर फ़लक की सीढ़ियां चढ़ते उतरते किसकी बाँह पर रखके सिर चंद कोरी साँसें भरेगा टूटते झरते बर्ग नही हैं अब किसकी नक़ल उतारेगा और गिरेगा टूट कर कि एक नई सुबह उठे ज़र्द पत्तियों की जैसे साखों से कूदा करता था वो पका पीला चाँद तो कभी लटक जाता था शजर की दस्त थामे झूले की तरह डाल पर बनी पत्तों की गट्ठरी पर बैठ जाया करता था कभी कभी टहनी पर एक रात सी सियाह कोयल संग गुफ़्तगू करते भी देखा है उस कोकिल ने एक नया बसेरा ढूंढ लिया है
ना जाने अब चाँद का क्या होगा ?
उस दरख़्त को काटकर ले गए हैं कुछ लोग ज़मी पर घसीटते हुए।
एक ग़ज़ल लिखी है शायर ने और मुकम्मल कर दी है /मुक़म्मल-पूरा
एक मतला है /मतला-ग़ज़ल का पहला शेर एक मक़्ता है /मक़्ता-ग़ज़ल का आखिरी शेर और मक़्ते में तखल्लुस भी /तखल्लुस-पैन नेम वज़न-ए-अशआर भी ठीक ही है /वज़न-मीटर,आशआर-कपलेट्स
मगर ग़ज़ल के किसी शेर का एक मिसरा बहर से खारिज़ है /मिसरा-एक लाइन
इसी तरह खुदा ने भी कुछ ख़ास इंसानों को बहर से खारिज़ लिक्खा है। /खारिज़-ग़लत