स्मृतियों के कैदी पड़े होगे कहीं,मेरी पुरानी कविता के भाव,
पृष्ठों पर उकेर न सकी उन्हें,अलंकृत शब्दों का रहा अभाव,,
फँसी पड़ी होगी फव्वाडे बीच,तोड़ रही होगी कहीं वो पत्थर,
पसीने में तरबतर कई दफा मिलना चाहा उसने मुझसे अक्सर,,
बेजान पड़ी होगी किसी नीम तले, कड़ी धूप से बचती होगी,
कीट,कंक्रीट जो चुभें पैरों में,कहीं कोमलता से सहलाती होगी
भोर का दीप प्रज्वलित कर,गोधूलि में गुम जाती थीं कविता,,
अर्थ,व्यर्थ के भँवर बीच उलझी,लगे अधूरे प्रेम सी मेरी कविता,
होतींआजाद वो स्मृतियों के पिंजर से तो,नेह दे उन्हें मैं सहलाती,
स्वतंत्र विचरती वो नील गगन में,मनोभावों की लिखती मैं पाती,,
ऑंचल की ओट सहेजे रखा मुझे,न्योछावर रही माँ के प्रेम सी,
नादाँ,अनपढ़ ही रही 'मंजुल'कविता,परिपक्व न हुई सयानो जैसी,,
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