मैने रात को टूटते हुये देखा है,
देखा है उसे बिखरते हुये,
शिकस्त खाते हुये
इन रोशनियों से,
छुपती, छिपाती,
फिर उस माहौल को
खुद में समेट,
यकायक ,
ज़मीं पर उसको बरसते देखा है,
अवदाह सी,
भीषण अग्नि बनने को,
बनने को एक विराट दावानल
अहसासों की,
अनुभूतियों की,
चंचल और अदम्य
लपटों सी,
पाने को आतुर,
वो खोया आसमाँ,
जो पास नही था,
था बेहद दूर,
फिर थक कर,
चूर चूर हो,
धरती के माथे पर,
पसीने की मानिंद,
उसको सजते देखा है,
सुबह सवेरे
नन्ही सी
उस ओस की बूँद में,
उसे सिमटते देखा है,
हाँ, मैने रात को टूटते हुये देखा है।।
©®मधुमिता
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