तन्हा न जानें क्यों हर महफ़िल लगती है
इस आलम में ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल लगती है ,
सुकूँ की सुबह के इंतेज़ार में था ये दिल
मग़र शाम ग़मों की बड़ी ही तहदिल लगती है ,
अंदाज़ा न था यूँ इस क़दर बिखर जानें का
के सारी दुनिया ही अब मुझसे क़ाबिल लगती है ,
सहमी सहमी सी हैं हर धड़कन इस दिल की
इक बेचैनी सी हवाओं में जैसे शामिल लगती है ,
बेवज़ह ही क्यों भला वक़्त दें उस सफ़र को
किसी ग़ैर की ही जब उसकी मंज़िल लगती है
गर गुज़र जाऊँ तो इसमें क़ुसूर नहीं खुदा का
ज़हन की हर साँस ही अब तो क़ातिल लगती है ,
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