जीवन की बहती यह नियमित समय धारा है कभी इस पार , तो कभी उस पार का सहारा है कालचक्र में आते जाते हर पल का यही हासिल जीवन में कभी कुछ जीता तो कभी कुछ हारा है।
जीवन समर में खुद को तपाना पड़ता है हर रावण को हराने रघुवर को आना पड़ता है जब जब होती है असुरत्व और देवत्व की लड़ाई धर्म की जय के लिए नारायण को आना पड़ता है
उससे कहने को अंतस में हर बार ख़्याल आता है कैसे कहूं उससे, हर बार यही सवाल आता है अपनी ही ध्वनियों को प्रतिध्वनियों में सुन सुनकर न कह पाने के बीच, बीते हुए सालों पर मलाल आता है
जंगलों को काटकर वो महल बना रहे हैं फिर प्लास्टिक की चिड़ियों से उसे सजा रहे हैं अपनी इस नासमझी को समझदारी समझ कर तेरा मेरा करते करते वो सबको उलझा रहें हैं।
ग़म, खुशी, मिलन, बिछड़न सब किरदार देखते रह गए हम मिलकर बिछड़ गए फिर मिलने की आस देखते रह गए समय के साथ कदमताल की कोशिश करते करते हम इतिहास के पन्नें पढ़ते पढ़ते वर्तमान देखते रह गए
सिंधु की महिमा कब समझेगा यह मानव जीव सिंधु बिना रह सकती है क्या यह धरती सजीव समुद्र मंथन से पहले भी निकले थे रत्न, नर और जीव समुद्र में अब भी रहते है अनेकानेक निर्जीव और सजीव शान्त समुद्र जल को निहारता किनारे बैठा व्याकुल जीव पर समुद्र की व्याकुलता को कब समझेगा यह मानव जीव समुद्र संसाधन को सहेज लो हे सर्व समर्थ मानव जीव नहीं तो समुद्र के रौद्र रुप में विलीन होगा सम्पूर्ण निर्जीव और सजीव तेल बूंद को जब खायेगा अनेकानेक सूक्ष्मजीव तब रहेगा सबको जीवन देने वाला यह सिंधु सजीव अगर देखना है सिंधु में कलरव करते मत्स्य और जलजीव तो सिंधु को फिर स्वच्छ करो हे सर्व समर्थ मानव जीव