रंग चढ़ा ना कोई मुझ पर
चढ़ा कभी ना कोई गुलाल
कोरी मेरे मन की चुनरी
मैं हुई कभी ना शर्म से लाल!
भीगी तन की अंगिया खूब,
बहकी ना कभी मन की चाल।
सूखा मेरे मन का आँचल,
मैं हुई कभी ना शर्म से लाल!
इतने फागन बाद मिले हो,
करो मिलन हर बंधन टाल।
तुम संग झूम के होली खेलूँ,
आत्म खोह हो लाल म लाल !
देख ना मुझको ऐसे साजन
तन की ढीली पड़ती ताल
लोक-लाज अब ढोह ना पाऊँ
हाय !!! शर्म से हुई मै लाल,,
लिली मित्रा
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