*उम्मीद की रोशनी*
रोशनी रास्ता ढूँढ ही लेती है,
बंद दरवाजे के नीचे जो हल्की सी जगह
होती है वहाँ से ; तो कभी खिड़की की काँच
के भीतर से मुड़के आ जाती है,
सूरज की रोशनी समुन्दर की लहरों
पर बेबाक थिरकती है ; तो रातों में
चाँदनी बन कर धरती पर उतरती है,
घने शज़र की शाखों से ज़रा सी गिरती
है ज़मीन पर छनके ; किसी ख़्वाब की
तरह आ जाती है अंदर मन के,
मायूस आँखों से कभी आँसु बन टपकती
है ; कभी हिम्मत बनकर चमकती है,
सवेरे किसी फूल से टकरा खुशबू बन
बिखरती है ; कभी घुल जाती है चिड़ियों
की चहचहाहट में और कानों में खनकती है,
तारों से ज़मीन पर आने में ये सालों साल
लगाती है, गिरते पड़ते यहाँ वहाँ से रोशनी
रास्ता ढूंढ ही लेती है।
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