सीधा पढ़कर उल्टा बिसराए ,"अध जल गगरी छलकत जाए"
नभ का भेद ना जाने हम ,और ना ही ज्ञान धरा का है
"सिध्दांतवाद" की बातें छोड़ो ,यहाँ तो मूढ़ लहराते पताका है।
प्रश्नों का भेद हम समझ ना पाते ,मस्तिष्क भ्रान्तियों से अटा रहे
कोई कितना भी उत्तम समझाए ,मौजी मन बस खुद पर डटा रहे।
पैबंद लगी ज्ञान की चादर ओढ़े ,है सब इस समर में खड़े हुए
हर तर्क पर उन्माद मचा रहे
अरे देखो!
"कैसे हम चिकने घड़े हुए"।
थोड़ा कुछ तो हमें ज्ञात है ,और शेष हम सुन ना पाए
हम सीधा पढ़कर उल्टा बिसराए ,"अध जल गगरी छलकत जाए"।
-खुशी पारीक
-