और फिर एक रोज़ वो सारे ख़त पत्थर हो गए ......रूठकर मनाने वाले भी और मान कर रूठने वाले भी।खामोशी बस खिसकती ही नहीं। हां ....बह जरूर जाती है ....इन पत्थरों के मांनिन्द ।ख़त अब तलक तो बुत हो चुके होंगे.... सदियों से बिना बोले हुए । - कल्पना पांडेय
और फिर एक रोज़ वो सारे ख़त पत्थर हो गए ......रूठकर मनाने वाले भी और मान कर रूठने वाले भी।खामोशी बस खिसकती ही नहीं। हां ....बह जरूर जाती है ....इन पत्थरों के मांनिन्द ।ख़त अब तलक तो बुत हो चुके होंगे.... सदियों से बिना बोले हुए ।
- कल्पना पांडेय