हम अपने दरिया खुद पार करते हैं अपने ही पुल जलाकर। ये अलग बात है कि पुराना जलते ही नया बन जाता है और हम इस मृगतृष्णा में डूबे रहते हैं कि पार लग रहे जबकि जीवन एक बर्फीला दरिया है जो जम गया है।
ना चाहते हुए भी अक्सर हम दोनों ने अपने बीच एक ऐसा एकांत उगा लिया है जो शोर से भरा है। इस एकांत के दो छोर हैं ।कभी तुम आवाज नहीं देते ।कभी मैं सुन नहीं पाती। शोर इन दोनों की असमर्थता की दारुण चीख है जो चुप की भाषा बोलती है।
अक्सर हमें हार का पता बहुत बाद में पता चलता है और जीत का तो उससे भी बहुत बाद में । ये बिसात प्रेमियों के बीच की है और ठीक तब की है जब पासे प्रेमियों ने फैंके हों।
एक रोज़ कहा था मैं अल्हड़ नदी हूं मुड़ नहीं सकती .... अब कहती हूं सभी नदियां पहाड़ नहीं तोड़ती ।कुछ एक रास्ता बदल लेती हैं। घूमकर बिना छुए चली जाती हैं। नदी अब घिस गई है ....अपनी मुक्ति खुद लिखती है। पहाड़ पर उसने याद उधार रख छोड़ी है। वो फूटता रहता है झर झर।