हुनर ना सीखा इस इस ज़िन्दगी को जीने का, हमें तो मज़ा आता है ग़मों के घूँट पीने का। सलीका-ए-गुफ़्तगू न सीख सके, रहे आज भी हम बोलने में लापरवाह, चलते रहे हर रहगुज़र में दर्द लिये, हुनर ना सीखा,इस ज़िन्दगी को जीने का, हमें तो मज़ा आता है ग़मों के घूँट पीने का। मिला जो शख़्स वो भी ना हमारा था, जिससे कुछ उम्मीद थी एक सहारा था, पलट के देखा ना उन आंखों ने कभी, हुनर ना सीखा, इस ज़िन्दगी को जीने का हमें तो मज़ा आता है ग़मों के घूँट पीने का।।
अब सिर्फ़ साँसें लेना ही ज़िंदा होना नहीं है, आजकल तो आपको अपने ज़िंदा होने के नगाड़े और ढोल पीटने भी बेहद ज़रूरी हो गए है क्योंकि ये वो दौर-ए-महामारी है जिसमें की बड़े-बड़े नाम भी गुमनाम जनाज़ों में खो गए है।