सोचा था....;
शायद गुजर गए, कष्ट-कंटक के मनहूसियत भरे दिन!
अब शायद नव वर्ष सबके लिए मकबूल होगा।
शायद भर जाएँगे 'बीस के टीस'और
'गम के जख्मों का दर्द' कुछ कम होगा।
उम्मीद थी...
नूतन वर्ष के नव परिधान में, उदित होगा उम्मीदों का सूरज, क्योंकि,
बात 'उन्नीस-बीस' की नहीं, 'बीस-बाइस' का है
फासला बड़ा है, अब तो कुछ अच्छा ही होगा।
पर यह क्या...!;
लग गई हमारी खुशियों पर, न जाने कौन सी नजर,
बुझाकर आस-उम्मीदों के दीयों को मुंतज़र,
कमबख्त वक्त ने पलटी ऐसी बाजी,
कैसा नया साल, कैसी खुशी?
जो बची थी बहोत थोड़ी हौसला हिम्मत, सब धराशायी!
इतने में सुनकर कुछ हलचल, पूछा घर के बाहर चलकर,
आखिर क्यों है इतना शोर, और आखिर ये है कौन?
भीड़ से कहा किसी ने, एक बार फिर मुँह ढँक लीजिए,
ये कोरोना के नए अवतार हैं, नाम है 'ओमिक्रोन'!
-