करते हैं संग ह़ाल बयाँ पाश पाश का
शायद अधूरा ख़्वाब है पैकर तराश का
कांधों पे बोझ लाद लिया अपनी लाश का
यूँ ख़त्म इक सफ़र हुआ ख़ुद की तलाश का
मिलने लगी हैं आहटें हर सू बहार की
घुलने लगा है रंग फ़िज़ा में पलाश का
भाने लगी है ख़ुशबू नए गुल की अब उन्हें
हर ख़्वाब यूँ है बिखरा ,घरौंदा हो ताश का
जाकर रुकी हैं ख़्वाइशें जिस एक लफ़्ज़ पर
अब तो सफ़र हो ज़ारी उसी लफ़्ज़े काश! का
उतरे खरे न 'ख़े' के तल्लफ़्फुज़ पे बज़्म में
झट दे गए बहाना गले की ख़राश का
पहना दिया है लोगों ने हंसते हुए कफ़न
अश्क़ों से ग़ुस्ल हो गया जब मेरी लाश का
संग,, पत्थर
पाश पाश,, टुकड़े टुकड़े
पैकर तराश,,मूर्तिकार
तल्लफ़्फुज़..उच्चारण
गुस्ल… स्नान
ग़ज़ाला तबस्सुम
-