//असल ज़िंदगी//
एक अरसे के बाद आया मुझे क़रार।
वो सहला के मुझे सुला रही थी।।
मेरे अंतर्मन में बन गई थी उसकी मूरत गहरी,
वो मौसम की तरह मुझे भूला रही थी।।
जो कभी चेहरे के सिकन से हो जाती थी परेशान,
आज वही कितना मुझे रूला रही थी।।
जो कभी कहती थी सारी कायनात है तू मेरी,
आज वही गैर मुझे बुला रही थी।।
चैन-ओ-सुकूँ लूट लिया उस बेवफा़ ने मेरा,
वही किसी और को बाँहों में सुला रही थी।।
आज तसल्ली से बैठकर जब सोचा मैंने गीतांश,
शायद वो असली ज़िंदगी से मुझे मिला रही थी।।
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