एक सफ़र पर जाने को जी चाहता है,
यूँही सब पीछे छोड़ जाने को जी चाहता है,
पिंजरे में कैद-सी लगती है ये जिंदगी
इसे आज़ाद कर जाने को जी चाहता है,
कशमकश सी है मन में, बैचैनी सी छायी है,
ना दिन बदल रहे न वक़्त,
ठहर सी गयी इस राह में,
आगे बढ़ जाने को जी चाहता है,
अब तो गुल भी गुलिस्तां छोड़ना चाहता है,
जहां मैन बैठे वहीं ये पंछी बैठना चाहता है,
क़िस्मत के दरख्त खुदसे खुलते नहीं,
इन जंग लगी कीलों को,
अब मन खुद उखाड़ फेंकना चाहता है,
बस एक सफ़र पर जाने को जी चाहता है,
यूँही सब पीछे छोड़ जाने को जी चाहता है..
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