राहों का नही कोई पता,
आंखें मूंद मैं चल पड़ा,
मंजिल तो है लापता,
अब आफताब भी ढल पड़ा,
काफिले के साये में था,
थोड़ा अनकहा, थोड़ा अनसुना।
उस भीड़ में बस एक परछाई था,
थोड़ा अनदेखा, थोड़ा अनसुना।
ढूंढता हर शख्स में था,
कुर्बत का एहसास नशीला।
उन्स मेरे हर अंश में था,
मगर राबता कही भी न मिला।
बाहें तो था खड़ा फेलाए,
ना थी शायद नज़दीकियां।
हाथों को था खड़ा बढ़ाए,
थी शायद काफी दूरियां।
फिर होके थोड़ा खुदगर्ज़,
हमने भी हाथों को मोड़ लिया।
ढूंढ़लिया मेने अपना हर मर्ज,
खुद ही को सीने से जोड़ दीया।
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