एक भिक्षुक
एक भिक्षुक पथ-पथ जाता है
झोली अपनी फैलाता है
ईश्वर को आवाज़ देकर
कुछ दाना अन्न का पाता है
हाथ में अपनी लकुटी लेके
वो आगे फिर बढ़ जाता है
सांझ सवेरे दर दर भटके
रात कोने में सो जाता है
चमड़ी उसकी कटी हुई है
आंते उसकी धसी हुई हैं
मुर्दे सा नज़र वो आता है
इंसान नही कहलाता है
धूप,छांव,बारिश,तूफ़ान
धरती, अंबर,पर्वत,पठार
सब संकट से लड़ जाता है
पर अशना से मर जाता है
एक भिक्षुक पथ-पथ जाता है
झोली अपनी फैलाता है।— % &
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