जब व्यक्ति के भीतर आंसुओ का सैलाब होता है उसके पास कोई सुनने वाला न हो न कोई समझने वाला तब वो उस सैलाब के बांध को रोका रहता है शायद इस डर से कि कहीं कोई देख न ले और उसके आंसुओं का कब मजाक बना दे
तब वह सैलाब का बांध वहां जाकर टूटता है जहां उसके, प्रकृति, ईश्वर और आकाश के सिवा कोई न हो जो उसके भावनाओं का मजाक न बना सके
अपने जीवन के हर मोड़ पर किसी का साथ दे पाए या न दे पाए किन्तु कभी किसी के भावनाओं का किसी के आंसुओं का मजाक मत बनाना
अज्ञातवस हर मनुष्य भावनाओं में बह जाता है शायद इतना की जब उसे स्वयं संभलना हो तो वो संभल ना पाए
इसलिए भावनाओं को स्वयं पर हावी न होने दे कलयुग है ये साथ तो नहीं देंगे लेकिन मजाक बना देंगे
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