दीपिका कार्की   (मसानी❤️......✍️)
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Joined 11 July 2018


Joined 11 July 2018

पहाड़
पहाड़ पर कविता लिखती हूं,
बस एक शब्द स्त्री लिखती हूं....

पूर्ण रचना अनुशीर्षक में

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जिंदगी कुछ बेहतर भी होगी
या यूं ही निकल जायेगी?

और फिर जिंदगी का एक लंबा लेक्चर🤦
....
देखो निराश नहीं होते
देखो तुमसे भी दुखी
जिनके पास घर नही खाने का पता नही
बदलने को कपड़े नही .....
🤦☺️ हाए रे जिंदगी🤦☺️



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फिर मिलेंगे
________


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वो बूट
वो चित कबरी सूट
पीठ में पिट्ठू हाथों में बंदूक

नतमस्तक होकर
धरा को छूकर
वो वीर आंखों में ज्वाला भर

है सुसज्जित
गर्वित परिधान में
लक्ष्य पर दृष्टि तिलक भाल में

कहता है
सिंह सी गर्जना से
मिटाने या मिट जाने के दम्भ से

लौट आऊंगा शीघ्र ही
तिरंगा लहराते हुए
या तन पर ओढ़े हुए।।

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मेरे मनोभावों विचारों को कोई भाषा मिली
तो वो है मेरी प्रिय हिंदी
माना कि 14 सितंबर 1949 को
राज भाषा का दर्ज़ा मिला
पर मेरे तो तुम पहले बोल
पहली मेरे भावों को
व्यक्त करने का एक मार्ग हो
मेरा स्वस्प्न तुझे राष्ट्रभाषा रूप में देखना है
जब सबका एक कानून एक देश
और एक भाषा हो
शायद इसी में देश का उत्थान भी हो
बहरहाल जो भी हो
मेरी प्यारी हिंदी तुम
मुझे सभी भाषाओं में सबसे प्रिय हो

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एक शाम वो थी एक शाम ये भी है
तब दिल धड़कता था,
साँसे चला करती थीं
अब हृदय,फेफड़े अपने अपने काम करते हैं
तब सपने हज़ार देखते थे
अब मंजिलें साफ़ दिखती हैं
तब हवा से बातें करते थे
अब जमीं साफ़ दिखती है
तब शिकायतें बहुत हुआ करती थीं
अब सिर्फ ख़ामोशी में रहते हैं
आज इस पल में अब तुम नहीं
बस तेरी यादों में जिया करते है
जब तक तेरा साथ था
चांदनी बिखेरा करते थे
इसीलिये तेरे जाने के बाद
तारों में नहीं कान्हा
तुम्हें चाँद में देखा करते हैं



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**हार नहीं मानूँगा**
चींटी सदृश गिर के चढूँ
या चढ़ कर गिरूँ
ये हौंसला बना रहेगा
ये सिलसिला चलता रहेगा
पर हार नहीं मानूँगा....
धूप मिले या छांव
चाहे करना पड़े जप या कोई तप
मिले उल्लास या मिले परिहास
खुशी हो या गम
मुस्कान या हो आँखे नम
पर हार नहीं मानूँगा....
कोई हाथ थामे या ना थामे
कोई कदम से ताल मिलाये या ना मिलाये
कछुए की चाल चलूँगा
चींटी स्वरूप हौंसला रखूंगा
अपना लक्ष्य पा के रहूंगा
पर कभी भी
**हार नही मानूँगा **
Durga Dasauni Karki

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बाहर पूरा दिन मुस्कुराने में बीत जाता है
पर भीतर विचारों का महायुद्ध चलता रहता है
और दिल घायल अंतरात्मा की
मरहम पट्टी में लगा रहता है

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क्यों ना मैं किसी के लिए
रेगिस्तान की दूब बन जाऊँ
डूबते को तिनके का सहारा बन जाऊँ
चिलचिलाती धूप में एक छाँव बन जाऊँ
बेसहारा का सहारा बन जाऊँ
तमन्ना है,अपने लिए तो सब जीते हैं
पर मैं किसी ज़रूरतमंद के काम आ जाऊँ
किसी अनाथ को सहारा दे सनाथ कर जाऊँ
अहोभाग्य होगा मेरा
अगर ईश्वर मुझे इस लायक समझे
प्राणों का त्याग करते करते भी
किसी के काम आ जाऊँ
क्यों ना मैं किसी के लिए
रेगिस्तान की दूब बन जाऊँ

Durga Dasauni Karki



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***चार कणिक मिश्रीक ***😢😢

2 साल बाद 20 दिन की छुट्टी
जब से ticket book किया
मानो पंख लगे थे, अपने गांव जाने को
लोग हमें पलायन का ताना देते हैं ।
उन्हें क्या पता ,अपने घर से दूर
हमारा भी मन तड़पता है ।
अपनों से मिलने को ,
वो हरीभरी वादियाँ देखने को ,
अपने खेत खलिहानों को देखने को,
पथरायी आँख से बाट जोहती माँ से मिलने को ,
भाई ,बहन, भाभी से मिलने को ।
और वो गुड़ , मिश्री दगड़ चहा सुडक्याने को ।
यूँ तो वो घूमती रोड बहुत तकलीफदेह होती है
सोचती हूँ स्वर्ग पहुंचने का रास्ता इतना आसान तो नहीं होता ,
मेरे गांव की वो हरियाली वो खेत,वो नदी,
वो पेड़पौधे और
वो भयंकर चढ़ाई !
बस यादें हैं
थोड़ी यादें पुन्तुरों में समेट लाये हैं
जिनमें भांग और ये ,और वो, और मिश्री ।।।
यादें बस यादें, ये यादें अब चार कणिक मिश्री में बसी हैं ।
पता नही क्यों, इन चार कणिक मिश्री में मुझे
मेरे गांव,मेरे अपनों की खुशबू आती है ।
कहने को ये शक्कर जैसी मीठी हैं ,
लेकिन मिश्री की बात ही अलग है ।
इनमें मेरे अपनों की, मेरे पहाड़ की यादें बसी हैं।
बस अब चार कणिक मिश्री ही बची हैं 😢

***मेरी यादें बस चार कणिक मिश्रीक ***😢😢****************************😢

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