कितना मुश्किल है लिखना कुछ आसान सा। कुछ ऐसा जिसमे ना भारी-भरकम शब्द हो, ना गहरे फ़लसफें हो, ना तुकबंदी की कोशिशें हो, ना उतार चढाव की मसक्कतें हो। जिसमे ना सियासी मुद्दे हो, ना उलझे-बिखरे रिश्ते हो, ना अधूरे इश्क के किस्से हो, ना जिंदगी के अनकहे हिस्से हो।
कुछ ऐसा जिसमे ना जरूरते हो, ना ख्वाहिशें हो, ना किसी की पसंद-नापसंद का जिक्र हो, ना तारीफ़ें बटोरने का फिक्र हो। जिसमे मंजिल की तलब नहीं बस जूनून हो। जिसमे सुकून की तलाश नहीं पर सुकून हो। कुछ ऐसा ही बेपरवाह, बेमतलब, बेजान सा । शायद इक रोज मैं लिखूँगा कुछ आसान सा।
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