Dheeraj Chandani   (कृष्णा)
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Joined 12 September 2017


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22 JAN AT 21:25

"इस जगत में श्रीराम होना आसान नहीं"
था कौन दूजा जिसने घर में ही झेला हो वनवास कभी..
हुई थी हत्या कारसेवकों की जब मूक थी सब आवाज तभी...
सैकड़ों वर्षों में आज राम का जब वनवास समाप्त हुआ...
श्रीराम के चरणों की अनुभूति का जब हमको एहसास हुआ...
लगे जागने ज्ञान सभी के और बनने लगे विद्वान सभी....
जब रामलला से अश्रुओं ने संवाद किए हाँ तभी आज तुमने बोला- है रखा नियमों का ध्यान नहीं ?
कोठारी बंधुओं ने जब शहादत गले लगाई थी...
लगा आग जब उन्होंने साबरमती जलाई थी...
शब्द कहाँ गायब थे तब ,क्या शांति की यह परिभाषा थी ?
थी सहिष्णुता तब भी जीवित अपनी और न्याय की हमको आशा थी !
रामलला के पुर्नस्थापन का जब भी हमने संकल्प उठाया था !
तारीख पूछकर तुमने तब भी वेदना का उपहास उड़ाया था....
श्रीराम भक्ति में रमे जगत ने महसूस किया तब भी है अपमान नहीं.......
हाँ प्यारे है इस जगत में श्रीराम होना आसान नहीं.......

-धीरज चंदानी

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24 OCT 2023 AT 13:35

सबक आत्मसात करने का विषय है....
लेकिन इसे रोपित करने का दौर चल रहा है....
सिगरेट पीने वालों का पटाखों के धुएँ से दम घुट रहा है.....
अजी कहते हो अंदर के रावण जलाओ दशहरा न मनाकर....
माया की मादकता में डूबा इंसान भी दूसरों में रावण में ढूंढ रहा है.....
तुम्हें निरीह जीव की हत्या में उत्सव दिख जाता है....
किंतु चढ़े चढ़ावा जो दूध का तो भूख का दानव याद आ जाता है......
कैसे हैं मानक तुम्हारे और कैसा यह दौर है?
केक और चॉकलेट से मुख लिप्त करने के फैशन में ,
जल संरक्षण करने का सबक देना सबके लिए बन गया सिरमौर है....
अंधे नहीं हो तुम बस इक विकृति के परिणाम हो.....
दानव के कुछ बचे अंश का तुम बन चुके इंतक़ाम हो.....
हाँ "दानव" के कुछ बचे अंश का तुम बन चुके इंतक़ाम हो......

-डॉ धीरज चंदानी

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16 NOV 2022 AT 1:12

क्रूरता में कैसी प्रीत थी ?
क्यूँ वीभत्सता की बस जीत थी?
रूह काँपी न क्यूँ इजतिराब से
जब श्रद्धा भंजित हुई आफताब से..

मोहब्बत में समर्पण हो बस
न निर्णय हो अनायास कुछ बेताब से
प्रेम की सात्विकता भी लज्जित हुई
जब श्रद्धा भंजित हुई आफताब से..

जीवन में साथ कि ही तो रखी माँग
प्रेमपाश का न समझ सकी वह स्वांग
विश्वास फिर खंडित हुआ इस इश्क इर्तिकाब से
जब श्रद्धा भंजित हुई आफताब से.......

-धीरज चंदानी

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8 NOV 2022 AT 13:06

गत कुछ दिनों में हमने...
मौसम बदलते देखा है
मनुष्य बदलता रंग कैसे
कैसे बदलती सिद्धांतों की रेखा है
माना कोई डूबता है कभी...
क्यूँ भूल रहा यह कुछ ही समय का लेखा है...
गत कुछ दिनों में हमने
यूँ मौसम बदलते देखा है....

धुंध की जिस घटा से छुप जाता कोई
क्षण के उस अभिमान को पल में उतरते देखा है
संघर्ष विचलित होता भले हो
विचलन के उस विस्तार को गिरते हुए यूँ देखा है .....
गत कुछ दिनों में हमने
यूँ मौसम बदलते देखा है....

-धीरज चंदानी

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22 OCT 2022 AT 21:52

पूछ बैठें जब लोग
कुछ हसीन लम्हों की बात
कुछ यादें ,कुछ इरादें और तेरे कुछ साथ
सबकुछ बता देना उनको पर
मेरा नाम न लेना तुम......
यकीन मान लो आज मेरा
होंठ काँप उठेंगे तेरे ,"धीरज" के एहसास से
चेहरे बदल लेंगे भाव लगेंगे बदहवास से
भीषण गर्मी को कारण बता देना उनको
लेकिन मेरा नाम न लेना तुम.....
बेफिक्र से मेरे जिक्र का
भाव तुम कुछ यूँ बयां करना
जैसे फर्क न पड़ता हो
मेरा जीना या मरना
बेरुखी को कुछ देर हथियार बना लेना तुम
बस
मेरा नाम न लेना तुम....

-धीरज चन्दानी

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19 AUG 2022 AT 9:27

है प्रतिकूलता में 'धीरज' धरना
और दृष्टता का मर्दन करना
श्री "कृष्ण" से सीखा है.....
है क्यूँ धरा पर जन्म लिए
क्या स्व "भाव" के सम्मत कर्म किए ?
दुर्बलता है अधर्म को सहना
यूँ अकर्मण्यता से न प्रवाह में बहना
हाँ "कृष्ण" से सीखा है.....
क्या लाए थे और क्या ले जाना है?
कैसे 'सदेह' मार्ग से 'स्वर्ग' पाना है
धर्म स्थापना ही परम ध्येय है
"प्रेय" से उच्च सदैव "श्रेय" है
अहंकार सम्मुख स्वरूप 'विराट' धरना
श्री कृष्ण से सीखा है
हाँ "कृष्ण" से सीखा है

-धीरज चंदानी

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17 AUG 2022 AT 18:02

जब मौसम को आज निहारा है ....

खुद में ख़ुदा ही बसता है
"वो" खुद से बना सहारा है
बोध हुआ 'स्व' के अपने
जब मौसम को आज निहारा है ......

उत्ताप जिसका सहना था कभी
सुरभि सत्पुष्पों की उसकी आज
देखो जश्न-ए-बहारा है ...
पतझड़ में भी "बसन्तराज" की है बाट दिखी
जब मौसम को आज निहारा है ......

दुर्गम मार्ग बस दृष्टि मात्र हैं
बदलते कोणों में हमने
देखा अक्स एक प्यारा है .....
वरीयता ही न सबकुछ पाई
जब मौसम को आज निहारा है .....

-धीरज चंदानी

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1 AUG 2022 AT 9:03

शुरू किया था सफर जहाँ से
आज भी पाता हूँ खुद को वहाँ
शुरुआत ही अंत बनेगी मेरी
ये मालूम मुझको था कहाँ
प्रयास फिर भी जारी था मेरा...
फिर भी
ना बोले वो ....ना मैने कुछ कहा॥

-धीरज चंदानी

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2 JUL 2022 AT 10:37

राम बसता ही तुझमें,तू ही कृष्ण का अवतार है...
फिर भी
क्यूँ हार मानता है तू...
विज्ञान बनता है तुझसे,तू ही ज्ञान का विस्तार है....
फिर भी
क्यूँ हार मानता है तू....
भविष्य संवरना है तुझसे,तू ही वर्तमान पर प्रहार है...
न जाने क्यों फिर भी
क्यूँ हार मानता है तू...

-धीरज चंदानी

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6 MAR 2022 AT 19:04

आलस्य का परित्याग कर
लोकतन्त्र पर गुमान करें .....
जो भी उचित लगे विवेक को
अपने उस विश्लेषण पर अभिमान करें ....
अजी मिली है यह शक्ति गर तो
जागृत बन मतदान करें ....मतदान करें .....
हाँ मतदान करें
#vote_for_democracy
And only #for_democracy

धीरज चंदानी

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