भाव-भंगिमा है नीरव, है
शांत औ' निश्चल इस तन की,
ये अधर लगते हैं मौन मगर,
ये आंखें मौन नहीं लगतीं।
यदा-कदा लहराती है,
ये लटा सुनहरी श्यामल-सी,
चेहरे पर उड़-उड़ आती है,
है आभूषणों की महिमा घटती।
हूं साक्षी इन कमल-नयनों का,
इस सौंदर्य-असीम का मैं साक्षी,
हिम-सी शांत-शीतल भीतर, है
प्रज्वल-विध्वंसी अग्नि-कांति।
इस जगत-महान में फैली कितनी,
लेकर सौंदर्य-विषयक भ्रांति,
सादगी का अभिलाषी है 'कुसुम-सी',
यही जग-आकांक्षा , है यही क्रांति ।
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