कभी कभी सोचता हु,
कि ये अल्फाज़
ना जाने क्या - क्या बया करती है,
जब मन करता है,
तब समय नहीं लिखने का,
और जब समय है,
तो अल्फाज़ नहीं लिखने को,
तो आज सोच की क्यों न,
अपने मन को ही लिख दु,
ना जाने कहाँ है ,
ये मेरी खुशी,
ना दिन में चैन है,
ना रात में सुकून,
ना किसी से इश्क़ है,
ना किसी चीज का जुनून,
फिर भी ना जाने क्यों,
तन्हा सा महसूस करता हु,
अपनी बात नहीं बया कर पता हु,
ना जाने मे कहाँ गुम सा हो गया हु,
कभी पढ़ लेता हु,
तो कभी खेल लेता हु,
और दोस्त मिले तो घूम लेता हु,
फिर भी तन्हाई सा महसूस करता हु,
ना कोई दुआ काम आती है,
ना कोई झाड़ - फूक,
बस खोया सा रहता हु,
मे ना जाने कहाँ घूम हु।
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