बाँसुरी मिश्र (श्वेतह्रदया🤍)   (बाँसुरी🤍)
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Joined 21 March 2020


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Joined 21 March 2020

अनुपस्थिति में भी उपस्थिति तुम्हारी...!

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स्तब्ध है 'निर्झरिणी'
मेरे स्पर्श मात्र से,
.
.
लिपट गए हैं, उसके
चक्षुजल मेरी 'पैंजनी' से
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भांप कर मेरे 'रदच्छद' मौन,
विकल हो उठी है स्यात,


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मौजूदगी ही काफी है
तुम्हारी मेरे हयात में,
सुनो न! ओ मख़मली
छुअन वाली,,,
सुना है, सूरत का तिलिस्म
मदहोश किये हैं सब को
और फिर सीरत के तो क्या कहने,
सुना है, अल्फ़ाज़ों के जादू टोने
भी करती हो,
तो फिर आज,,
बिखेर दो तो अपनी इंद्रधनुष के सात
रंगों में से, वो एक रंग
कर दो न एक ऐसी ग़ज़ल भी तहरीर
कि, जिससे तुम मेरे जज़्बात समझ लो!

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अपने हिस्से का वनवास...!

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किताबों सी.....!

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लापता... का...पता,

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'पारावार' तू यूं न
हाव-भाव के कब्जे हो,

मेरी 'द्युतीपूर्ण' चैतन्य क्रियाएं
अपनी चरम सीमा पर हो तो,

तुम्हारा यह गीला अपांग,
क्षण भर में अपंग हो जाएगा।

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